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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ऐसे ही विभोरता के अवसर पर अवलोकर-कटाक्षों से बस मन लेकर झट से चले गये। आप कृपा कर बता दो, हम सर्वशून्य होकर उन्हें ढूंढ़ रही हैं। आप बड़े हो, राजा हो, न्याय करो। अथवा मन के तीन भाव हैं- तामस, राजस, सात्त्विक। प्रेम, हास और अवलोकन इन तीनों के मनों को अपहृत किया। यहाँ अलौकिक सद्घन, चिद्घन में तामस, राजस भाव कहाँ से आये? इस पर श्रीमद्वल्लभाचार्य जी का कहना है- यह यद्यपि लोकातीत है परन्तु यहाँ गोपी कोई तामसी, कोई राजसी आदि हैं। इनमें भी दस भेद है। इनमें तामसी तम से ऊँची हैं। ‘प्रेमपतन’ आदि में भी यह वर्णन है। जो अन्यत्र प्रधान है वे प्रेमपन्थ में अप्रधान है। वह भी वैधी भक्ति की अपेक्षा रागानुगा प्रीति में और भी अप्रधान है। वैधी प्रीति में सत्य आदि धर्म का ही मन्त्रिमण्डल रहता है। रागानुथा में वह बदल जाता है, वहाँ व्यसन लग जाता है। परन्तु यदि भावुक का मन श्रीकृष्ण पादारविन्द मकरन्द का मधुप बन जाये, तब तो फिर महान वैराग्यादि भी अग्नि में ‘राई नोन’ की तरह वारकर फेंक दिये जायें। श्रीसनकादि, शुकादि आशावसन दिगम्बर महा विरक्त थे। पर उन्हें एक व्यसन था- जहाँ मंगलमय भगवान का चरित्र होता; उसे वे अवश्य सुनते। अन्यत्र आशा दूषण है, कहा भी है- “आशा पिशाची परिमर्दितानाम...” परन्तु यहाँ वह भूषण है, यहाँ आशा, तृष्णा कल्पलता है। अन्य सब कुछ देकर भी इसे भावुक खरीदना चाहता है। तामस स्नेह है, एक गाढ़ आसक्ति है, दृढ़ अभिनिवेश है। प्रेमी इसे पाकर किसी की नहीं सुनता। माता, पिता, वेद, शास्त्र, सज्जन, साधु उसे इस मार्ग से रोकते-रोकते परेशान हो जायें, पर वह किसी की नहीं मानता। वह उसका प्रिय व्यसन मूढ़ग्राह औरों की तो क्या, साक्षात् सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की भी बात कान नहीं करता। यह महाअग्निपुन्ज सूर्यदेव ठण्डा पड़ जाये, चन्द्र जल उठे, दुनिया उथल-पुथल हो जाये परन्तु यह वह प्रेम है, वह तामस स्नेह है जो किंचिन्मात्र भी शिथिल न होगा। जैसे लौकिक कामिनी को कान्त में अटूट अनुराग होता है, इन गोपांगनाओं को वैसे ही श्रीकृष्ण में था। वैधी प्रीति में इसका तिरस्कार है, परन्तु रागनुगा में इसी का आदर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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