भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
षष्ठ प्रमाणवादियों के यहाँ सर्वत्र यह नियम नहीं है कि अभाव अनुपलब्धिगम्य ही है, क्योंकि व्याप का भाव से व्याप्य के अभाव को और कारणाभाव से कार्याभाव को अनुमेय मान लिया गया है अर्थात यदि वक्ष्यमाण तत्तत भट्टपादादि वृद्धों की सम्मति से अभाव का प्रमाणान्तरगम्यता भी है, तो योग्यानुपलब्धि गम्यस्थल में ही प्रतियोगि ग्राहक द्वारा अधिकरण के ग्रहण का नियम है, क्योंकि अभाव की उपलब्धि का व्याप की भूत जो अनुपलब्धि आदि कारण है, उसके अतिरिक्त इन्द्रियादिरूप कारण की पुष्कलता ही योग्यता है और इन्द्रिय उसका अन्तःपाती होने के कारण उसके अभाव में भी योग्यता न बनेगी। जहाँ प्रमाणान्तरगम्यता होती है, वहाँ उसके बिना भी अभाव का ग्रहण हो सकता है, जैसे व्याप का भाव से व्याप्याभाव का अनुमान। इस विषय में भट्टपाद लिखते हैं कि अग्नि और धूमरूप भाव के नियम्यतत्त्व-नियन्तृत्व जैसे माने जाते हैं, वे ही नियम्यत्व और नियन्तृत्व अग्नि-धूम सम्बन्धी अभाव के विपरीत प्रतीत होता है। भावावस्था में धूम नियन्ता और अग्नि नियम्य होता है और अभाव में इसके विपरीत स्थिति होती है अर्थात जब धूमाभाव नियम्य और अग्नि का अभाव नियन्ता होता है-
‘‘विपर्ययाभावस्तु युक्तोऽनुमातुं हेत्वभावे फलाभाव इति।’’ अत एव स्थल विशेष में अनन्यथा सिद्धि अन्वय-व्यतिरेक बल से अनुपलब्धि की अभाव प्रतीति में कारणता निश्चित होती है। प्रकृत में स्वपुष्कल कारण से कार्योत्पत्ति हो सकती है, तब प्रतिबन्ध का भाव को कारण मानना आवश्यक नहीं है और इस मत में अन्योन्याश्रयता का वारण करना भी कठिन होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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