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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इसी प्रसंग में ‘कच्चित्’ का प्रयोग है। कच्चित प्रश्नवाचक अव्यय है। इस अर्थ में यह पहले अभी-अभी चरितार्थ हो चुका। फिर अब वृक्षों की उक्ति में इससे अचित् जड़ अर्थ प्रकाशित हुआ। व्रजांगना वृक्षों को यही उत्तर देती हैं- ‘तुम अज्ञों को अचित् प्रतीत होते हो, परन्तु हो चेतन, आप लोग अमलात्मा महामुनीन्द्र योगीन्द्र हैं, यहाँ श्रीश्यामसुन्दर का स्पर्श प्राप्त करने के लिये तरु, लता रूप में प्रकटे हैं। तरु, लता बनने की बात तो श्रीउद्धव ने भी कही- “आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।”[1] व्रजांगना को जब तक अपने प्राणधन के पता मिलने की आशा रही, वृक्षों की खूब प्रशंसा की। पर जब देखा कि अब न बतायेंगे, आशा निराशा में बदल रही है; तब उन्हें उससे असूया होने लगी। गुणों में दोष दीख पड़ने लगे। एक कहती है- सखि, ये चेतन चाहे हों, पर ये कच्चित् हैं, इनका चेतन, कुत्सित चेतन है- “कत्चित्-कुत्सितंच चेतनं येषाम्...।” अच्छा, ये अब हमको ज्ञात हुआ, तुम लोग तीर्थवासी हो, बड़े कठोर हो, अतः बतलाते नहीं। अथवा आज दिन राजा कलि का साम्राज्य है। वह चोर पक्षपाती है। तुम भी वृक्षों, चोरशिखामणि माखनचोर श्यामसुन्दर के पक्षपाती हो। अत: इसका नाम ‘अश्वत्थ’ है, स्थिरमति नहीं, आज कुछ तो कल कुछ कहता है। फिर ‘चल-पत्र’ भी यह है-स्वयम अस्थिर है, जान-बूझकर भी धोखा दे सकता है। दूसरा यह इसका साक्षी प्लक्ष भी ऐसा ही है- ‘प्रकृष्टतया क्षीयते इतिप्लक्षः।’ यदि हम धर्मात्मा होता, तो प्रकृष्ट (अधिक) क्षयी क्यों होता? और इस न्यग्रोध की तो बात ही मत पूछो, इसने तो अपने यहाँ दूसरों के लिये तिरस्कार का ही भण्डार भर रखा है- ‘न्यक्कारमेव रोधयति।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., स्क. 10, अ. 47)
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