विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अत: व्रजांगना वृक्षों से पूछती हैं-
अश्वत्थ, प्लक्ष, न्यग्रोध तीनों सबसे बड़े ऊँचे वृक्ष हैं, दूर की बात देख सकते हैं। दूरस्थ श्याम को ये जान लेंगे। अश्वत्थ की व्युत्पत्ति है- ‘न श्वोऽपि स्थाता।’ अर्थात् कल भी अगले क्षण में नहीं रह सकने वाला अनित्य यह विश्व है-ऐसा समझने वाला ज्ञानी अश्वत्थ है। गोपांगना कहती हैं, ऐसी विश्व की गति को जानकर सदा परोपकार में रत है अश्वत्थ, हमें कृपा कर हमारे प्राणप्यारे को बताओ, क्या आपने कहीं उन्हें देखा है? वः-युष्माभिः। अर्थात्; क्योंकि वे श्यामसुन्दर आपकी ममता के आस्पद हैं। साधारण वस्तु पर ध्यान नहीं दिया जाता, ध्यान रहता ही नहीं। पर, जो अपना है, उसका पता रहता है, उसका भी आना-जाना बना रहता है। श्रीश्याम आपके परप्रेम के आस्पद हैं। आप विहारस्थली के हैं, आप महाभाग्यवान् हैं, कृपा कर हमें उन श्याम का पता दीजिये। यह प्रशंसा हुई। ऐसे ही ‘प्लक्ष’ की स्तुति करती हैं- ‘प्रकृष्टतया क्षीयते परोपकाराय यः स प्लक्षः, रलयोरभेदः’ अर्थात् जो सदा परोपकार के निमित्त ही क्षीण होता रहे वह प्लक्ष है। ‘प्लक्ष’ को प्रक्ष मानकर यह अपेक्षितार्थक व्युत्पत्ति की गयी, ऐसे अवसर पर र ल में भेद नहीं माना जाता। परोपकार के लिये अपने को मिटा देने में सोत्साह हे प्लक्ष, तुम्हारा जीवन-मरण दोनों उपकार के लिये हैं हमारा भी उपकार करो जरा श्रीश्यामसुन्दर को बता दो। न्यग्रोध! याचक को जो दुत्कारना, वह हुई न्यक्कार, उसे रोकने वाला- ‘न्यक् रोधयतीति न्यग्रोधः। हे न्यग्रोध! तुम बड़े उदार हो कोई उन वंशीधर में प्रेम माँगने आयेंगे तो उन्हें तुम न्यक्कार न करोगे। अतः हम तुमसे याचना करती हैं- श्रीश्यामसुन्दर का पता दो, बड़ी कृपा होगी। वे ‘नन्दसूनु’ हमारा चित्त चुराकर ले गये हैं; हम उन्हें ढूंढ़ रही हैं, अतः हे अश्वत्थादि! तुमने कहीं देखा हो तो बता दो। गोपांगना इस समय श्रीकृष्ण पर कुपित हैं, अतः बड़ों के नाम से उनका नाम निर्देश करती हैं- नन्दसूनु नन्दराय के बेटा। हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि हमारे यदि वे होते तो हमारे पास रहते। यदि कोई गोपांगनाओं से पूछे कि यदि यह बात है तब इतनी व्यग्रता से तुम उन्हें ढूंढ क्यों रही हो? इस पर उनका उत्तर है- वे चोर हैं, हमारा मन चुरा ले गये हैं, चोरों का पता बहुत जरूरी है। सखि, तुम्हारा मन तुम्हारे पास होगा, वे क्यों लेने आयेंगे और कैसे ले जायँगे तो- ‘प्रेमहासावलोकनैः’ मन्दहास और कटाक्षपातों से हमारे हृदय में प्रविष्ट होकर ले गये। कदाचित् वृक्ष कहें; देवियों, हम वृक्ष हैं-जड़ हैं, हम क्या जानें तुम्हारे चित्त चोर को। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज