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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
गरज पर बड़े-बड़े नास्तिक, साधुओं की खुशामद करते हैं, उनसे सट्टा पूछते हैं। तब प्रियतम प्राणधन की प्राप्ति के लिये ही क्या-क्या न किया जाये, किस-किससे न पूछा जाये? अतः व्रजांगना सबसे पूछती फिरती हैं, गाती फिरती हैं। यही उपदेश है-रागद्वेष छोड़कर तल्लीन होकर अभिलषित वस्तु का पता लो, अवश्य सफलता मिलेगी। “गायन्त्युच्चैः” यों श्रीगोपांगनागण उच्च स्वर से भगवान को गाती हुआ उनके अन्वेषण में संलग्न है। इसमें गोपियों का एक भाव यह भी है कि- ‘जैसे श्रीमुरलीमनोहर के श्रीविमुख से विनिःसृत वेणुगीत निनाद को सुनते ही हम उनके सन्निधान में अविलम्ब आ पहुँचीं, वैसे ही वे भी शीघ्र हम लोगों के पास पधारें। अतः उच्चैः उनके गुणों को गाती हुई ढूंढ़ती हैं। अपने गुणों को प्रशंसा को सुनकर शीघ्र आयेंगे, यह भी व्रजदेवियों का तात्पर्य है। उपदेश तो है ही कि श्रीभगवान की प्राप्ति का असाधारण कारण उनका गुणगान ही है, इन गोपदेवियों के लिये उन्मतकवत कहा गया है। उन्मत्तक में ‘कनु’ प्रत्यय अधिकता में है। इससे यह बतलाया गया कि- व्रजांगना मतवालों की तरह देह-गेह के नेह और सम्बन्ध से तथा वस्त्रानुसन्धान आदि से शून्य हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि वे कहाँ क्या कर रही हैं। अर्थात्; अधिकाधिक उन्मादिनी गोपी उच्चस्वर से प्राणधन घनश्याम को गाती हैं। यद्यपि इस समय श्रीभगवान इन्हें त्यागकर दुःसह विप्रयोग दुःख दे रहे हैं। श्रीव्रजदेवियों के श्यामविरहजन्य तीव्रातितीव्र सन्ताप को देखकर लोक निरालोक हो गये, दिशा-विदिशा सन्तप्त हो उठीं, पाषाण भी द्रुत हो चले, पर वे व्रजचन्द्र तनिक नहीं पिघले, बड़े निष्ठुर-महाकठोर बने हुए हैं। फिर भी व्रजांगना अपने कार्य से विरत नहीं हैं- वे उच्च स्वर से उन्हें ही गा रही हैं। वे चाहे रीझें, चाहे खीझें, वे तो उन्हें ही एकमात्र उन्हें ही गायेंगी। वे तो निश्चय लेकर बैठी हैं- “असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा...” वे चाहे करुणारसार्णव हों चाहे द्वेषमहावाडवानल, ये तो भजेंगी उन्हें ही। गायेंगी उन्हें ही। अब क्या दूसरों को गायेंगीं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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