भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यदि यह कहा जाय कि असम्बद्ध ही अभाव इन्द्रियग्राह्य हो, तो क्या हानि है, क्योंकि उसकी प्रतीति इन्द्रियान्वय-व्यतिरेक की अनुविधायिनी होने से अपरोक्ष है और इसके अतिरिक्त दूसरी गति भी नहीं है, तो यह कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि अयोगि प्रत्यक्ष की प्रमिति में इन्द्रियों से सम्बद्ध अर्थग्राहकत्व-नियम का निराकरण नहीं किया जा सकता और व्यतिरेक अधिकरण के ग्रहणमात्र में उपक्षीण हो जाने से अन्यथा सिद्ध भी हो जाते हैं। इस पर यह कहा जा सकता है कि नहीं, अन्वयव्यतिरेक की अधिकरण के ग्रहणमात्र में उपक्षीणता कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव को इन्द्रियग्राह्य न माना जायगा, तो अन्ध द्वारा त्वगादि से घटादिरूप अधिकरण के गृहीत होने पर उसको रूपाभाव की प्रतीति मान लेना पड़ेगा, क्योंकि अधिकरण तो उस अन्ध से गृहीत ही है। यदि कहें कि चक्षुरिन्द्रिय के न होने से वहाँ अन्ध को रूपाभाव का प्रत्यक्ष न होगा, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इन्द्रिय अभाव का ग्राहक है ही नहीं, अत एव यह कहा जाय कि अन्ध को प्रतियोगी ग्राहक इन्द्रिय न होने से ही रूपाभाव की प्रतीति न होगी। तथा च अभाव की ऐन्द्रियकत्व सिद्धि हो जाती है। परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फिर अभाव को प्रतियोगि ग्राहक इन्द्रिय ग्राह्य मानने वाले के मत में भी अनन्ध को भी असन्निहित मेरु आदि में घट एवं उसके रूपादि के अभाव की चाक्षुषता क्यों न होगी? यदि कहा जाय कि वहाँ प्रतियोगी के चाक्षुप होने पर भी अधिकरण के चाक्षुष न होने से रूपाभाव का चाक्षुषत्व नहीं होता, तो इधर से भी कहा जा सकता है कि इसीलिये त्वगिन्द्रिय से गृहीत घटादि में अन्ध को रूपाभाव की प्रतीति नहीं होती, क्योंकि प्रतियोगि ग्राहक इन्द्रिय द्वारा घटादि रूप अधिकरण का वहाँ ग्रहण नहीं होता। यदि कहा जाय कि तब तो घ्राणेन्द्रिय के अगोचर कुसुमादि या चक्षुरिन्द्रियग्राह्य वायु में गन्ध या रूप के अभाव का प्रत्यक्ष न होगा, तो इस पर यही कहना होगा कि भले न हो, वहाँ वायु आदि में रूपादि का अभाव चाक्षुष ने होने पर भी उनमें रूपाभाव ज्ञानरूप व्यवहार में कोई बाधा नहीं पड़ती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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