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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
“यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो धृतात्मभिर्योगिभिरप्यगम्यः” जिन श्रीभगवान की पादधूलि बहुत जन्मों में भी योगीन्द्र-मुनीन्द्रों तक को भी दुर्लभ है, उन प्रभु ने अपने संचार से व्रज, वृन्दावन, लता-तरु को अनन्त महत्त्व दिया है। श्रीवृन्दावन के वृक्षों के प्रकाश की एक किरण भी बिना प्रभु पादारविन्द की अनुकम्पा के जन्म-जन्मान्तर, युगयुगान्तर और कल्पकल्पान्तर में भी द्रष्टुमशक्य है। ‘आनन्दवृन्दावन-चम्पू’ में कहा है- श्रीवृन्दावन धान के एक-एक वृक्ष, इन्द्रलील, पद्मराग और हरितमणि आदि के सदृश चमत्कृत-देदीप्यमान हैं, उनकी शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प, फल भी वैसे ही सचिक्कण, प्रकाशमान हैं। उन पर शुक, पिक, कपोत, तित्तिर, मयूर आदि अनेक विहंगम विराजमान हैं। उनके एक-एक पल्लव का प्रकाश सहस्रों सूर्यों को लज्जित करता है। किन्तु इनका दर्शन अनन्तदुर्भावनातिमिराच्छन्न इन चर्म-चक्षुओं से नहीं हो सकता। यह तो श्रीमद्भगवत्कृपैकलभ्य दिव्यदृष्टि पर ही निर्भर है। श्रीव्रजांगनाओं को यह सौभाग्य प्राप्त था। वे उन तरुओं के वास्तविक स्वरूप को देख रही थीं। अतः उनसे अपने प्रियतम प्राणधन आनन्दकन्द कृष्णचन्द्र परमानन्द को पूछती हैं। एक भाव और प्रसिद्ध कवि श्रीकालिदास के खण्डकाव्य ‘मेघदूत’ में यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास भेजा है। जहाँ प्राकृत स्थल में ऐसी स्थिति है कि चेतन-अचेतन का भेद मिट जाता है, तब इनकी तो बात ही निराली है। वे तो श्यामसुन्दर के लोकोत्तर अनुरागसागर में सदा इतनी मग्न रहती हैं कि किसी भी तरह की सुधबुध ही नहीं रहती। ऐसी स्थिति में चेतन-अचेतन को भूलकर वे भी वृक्षों से प्रश्न करें तो कोई असंगति नहीं। व्रजांगना वृक्षों से पूछते समय पहले उनका गुणगान करती हैं, प्रार्थना करती हैं; फिर उनसे अपने प्रियतम का पता न पाकर उनमें दोष बताती हुई आगे चल देती हैं। वे सबसे पूछती जाती हैं- न जाने किससे पता लग जाये। अपनी कार्य सिद्धि के लिये मनुष्य सब कुछ करता है। पुत्र के लिये लोग नौ मन काँकर चालते हैं। कितने ही देवी-देवताओं को ध्याते-पूजते हैं। गरज, सब कुछ करा लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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