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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वे यह निश्चय लेकर बैठी हैं- ‘चाहे वे शतकोटि-अनन्तकोटि कष्ट दें, पर हम तो उन्हें ही, बाँके बिहारी को ही गायेंगी। इनका यह ‘अटल’ नियम है। कितनी भी विपत्ति आने पर, ये अन्य को न गायेंगी। वे त्रिभंग होने पर भी ललित श्याम, चाहे कितने भी विपरीत आचरण करें, पर इनका प्रेम-प्राखर्य बढ़ता ही जायेगा। गायन उनका स्वभाव हो गया, अतः गाती ही हैं। ‘विचिक्युरुन्मत्तकवद् वनाद्वनम्’ उन्मत्तक की तरह, जहाँ-जहाँ सम्भावना है, ढूंढ़ती हैं। एक से एक को, निरालस होकर, दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें वनों को ढूंढ़ डालती हैं। विश्राम ही नहीं लेतीं। जब तक प्यारे मनमोहन ने मिल जायें, चैन ही नहीं। इससे भी उपदेश है- ‘ढूंढ़ते ही रहो।’ जब तक अभिलषित कार्य सिद्ध न हो ले, विश्राम ही कैसा? फिर वे पूछती हैं- वनस्पतियों से। उन्हें दृढ़ आशा है कि इनसे प्राणप्यारे को पता मिलेगा ही। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रेमी वृक्षों तक से पूछ सकता है; चेतन की तो कथा ही क्या? अमुक से पूछो, अमुक से नही यह तो उनके यहाँ विचार ही नहीं, अत: साधारण्येन बहुवचन है-‘वनस्पतीन्’। श्रीमद्वल्लभाचार्य जी का इस पर एक भाव है-वृन्दावन के वनस्पति वैष्णव हैं, ‘मूढ़ा अपि वैष्णवाः प्रष्टव्याः’। अनुरागी चाहे विद्वान न हों, पर वे प्रष्टव्य हैं। अतः वृक्षों से पूछती हैं। अथवा व्रजांगनाओं को प्रेमोन्माद से दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, उन्हें वृक्षों का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हुआ। व्रज के वन, लता, तरु आदि अपने एक-एक कण से श्रीश्यामसुन्दर के स्वरूप को प्रकट करते हैं[1] अत: भावुक व्रजधूलि को भाल पर धरते हैं। एक भावुक का कहना है-
अर्थात भगवान विष्णु के बहुत अवतार हुए और उत्तम-उत्तम हुए हों, परन्तु श्रीकृष्णावतार के अतिरिक्त और कौन अवतार हुआ, जिसने लताओं में भी जड़ों में भी प्रेम का गाढ़ संचार किया हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “वनलतास्तरव आत्मनि विष्णुं व्यन्जयन्त्यइव पुष्पफलाढयाः। प्रणतभारविटया मधुधाराः प्रेमहृष्टतनवः ससृजुः स्म। (श्रीधरीसंमतो ‘ववृषु’ रितिपाठः) [युगलगोपीगीत]। भगवान श्रीगोपाल जब वन में गौ चराने जाते तब कौतुकवश वेणु बजाकर चरती हुई गौओं को बुलाते। उस समय उनके वेणुख को सुनकर वन के लता, तरु (स्त्री-पुरुष दोनों ही) भार से झुकी शाखाओं से प्रणत होते, पुष्प और फल की बहुतायत से प्रसन्नता सूचित करते, प्रेम से रोमांचित होते। इन लक्षणों से अपने में मानों वे श्रीविष्णु को ही सूचित करते हुए मधुधारा बरसाने लगते। ये विष्णु साक्षात्कृति के लक्षण हैं।
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