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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
मानो वे उनकी काठ की पूतरी थे- ‘तद्वशो दारुन्यत्रवत्’ इसके अनुसार श्रीकृष्ण में गोपांगनात्व हुआ। यों ‘प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढ़मूर्तयः’ से विपरीत रति भाव बना। श्रीकृष्ण गोपांगना हो गये और गोपांगनाएँ श्रीकृष्ण हो गयीं। इस प्रकार गोपांगनाएँ श्रीकृष्ण बनकर कहती हैं- ‘असावहन्त्विति’। यह केवल भावना ही नहीं, वस्तु स्थिति ही ऐसी है। पहले तो प्रेमोद्रेकवश श्रीनन्दनन्दन उन व्रजांगनाओं के रोम-रोम में थे ही, दूसरे, प्रतिरूढ़भाव से भी वे उनमें स्थित हुए, एवं तीसरे, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में विभ्रमादि से भी वे प्रविष्ट हुए। इसके अतिरिक्त ‘कृष्णविहारविभ्रमाः’ का यह भी समास होता है- ‘कृष्णविहारस्य विभ्रमो यासु।’ कृष्ण विहार का विभ्रम जिनमें हुआ वे गोपियाँ मैं ही कृष्ण हूँ, ऐसा परस्पर कहने लगीं। अर्थात्; इन गोपांगनाओं के विहार में कृष्णलीला का विभ्रम हो गया। अत: यह लौकिक लीला थी। वस्तुतः गोपांगनाओं के मन में यह भाव ही नहीं था कि हम अनुकरण कर रही हैं, वे निष्कपट, निश्छल थीं। वे सच्चे ही प्रेम-समुद्र में गोता लगाती रहती थीं। इस समुद्र की तरंगें संयोग में शान्त रहती हैं, पर वियोग में खूब उठती हैं। कभी इसमें उन्माद, विभोरता का ज्वारभाटा आता है। जब कभी उनकी यह प्रेम-समाधि भग्न होती, तल्लीनता में कुछ कमी आती, वियोग का ज्ञान होता, तब वे पुकार उठतीं, ‘हा! प्राणधन, श्यामसुन्दर, नटनागर, कहाँ हो’ और ढूँढ़ने लगतीं-
श्रीगोपांगनाएँ अब तक बाह्यानुसन्धान से शून्य थीं, उन्हें होश ही नहीं कि हमारा श्रीप्राणप्यारे से इस समय असम्प्रयोग हो रहा है। बाह्यानुसन्धान होते ही ‘हा श्याम! हा प्राण कहाँ हो!’ इस चिन्तासन्तान-सन्ताप से सातिशय सन्तप्त हो उठती हैं और श्रीश्यामसुन्दर नन्ददुलारे को फिर प्राप्त करने का प्रयत्न करती हैं -सखि, चलो ढूंढ़ें। कैसे ढूंढ़ें? तो संहत-सम्मिलित होकर ढूंढ़ें। यहाँ व्रजदेवियों के इस चरित्र से उपदेश मिलता है कि कोई भी काम सम्मिलित होकर ही करना चाहिये, आपस की फूट से काम बिगड़ जाता है। इनकी तो यह नित्यलीला है। यह तो विप्रयोग का नटन हम लोगों के लिये है। वैसे इनमें कभी ईर्ष्या भी होती थी। इनके पृथक-पृथक यूथ थे। इनकी ईर्ष्या स्पृहणीय है, वह भक्ति-रसामृतसिन्धु की लहरें हैं। पारा बहुत स्वच्छ-उज्ज्वल होता है। गन्धक उसके रूप में हो जाती है, उसमें समा जाती है। चित्त जब स्वच्छ होता है, इष्टप्रेय तत्त्व उसमें प्रतिफलित होता है। उस समय चित्त आनन्दस्वरूप-रसस्वरूप होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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