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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
किसी ने कहा- ‘चातक, अन्य उत्तम जल पियो, मैं अमृत आन दूंगा। क्यों स्वाति पर प्राण देते हो?’ तो उसने कहा- “नहीं, मेरे लिये तो साक्षात् प्रेमद्रव भी तुच्छ है। मनुष्य की तरह ढुलमुलपन्थी मैं नहीं हूँ। यहाँ तो यह अडिग-अडोल निश्चय है-स्वाति बिन्दु ही मिलेगा तो लेंगे, नहीं तो पत्थर, ओला की मार से मर जायेंगे।” इतना ही नहीं, उसके मुँह से मरते समय अन्तिम शब्द निकले- “पुत्रो! मेरा श्राद्ध भी गंगाजल आदि जलों से नहीं करना।” वाह रही दृढ़ता! अपने प्रत्यक्ष भी न लिया और भविष्य के लिये भी वंशजों को शिक्षा दे गया। इतना ही नहीं, किन्तु मेरे वंशज भी ऐसा ही करें- यह भी निश्चित कर गया। यह है प्रेमतत्त्व। इन प्रेमी व्यक्तियों के अखण्ड प्रेम से ही इनका इतना यश फैला है। इसी प्रेमतत्त्व के सम्बन्ध से साधारण वस्तु में भी मिठास-उत्तमता आ जाती है। इसके बिना अमृत भी फीका है। बस यदि यह प्रेम नहीं‚ तो कुछ नहीं। यदि श्रीव्रजांगनाएँ व्रजेश्वर श्रीश्यामसुन्दर को पपीहा की तरह स्वाति का जल न समझकर साधारण जल स्थानीय समझतीं और ऐसी स्थिति में दूसरे के भजन-सेवन करने में प्रवृत्त हो जातीं, तो आज उनके इस महान् सौभाग्य का कोई प्रसंग ही न आता। पर इसके विपरीत उनका तो मन्तव्य ही यह है कि हमारे प्राणधन प्रेमी चाहे जैसे भी हों हम तो उनसे ही प्रेम करेंगी- “असुन्दरः सुन्दरशेखरों का....” वे अपने प्रेमी के गुण, दोष, महत्त्व के विषय में कोई शर्त ही नहीं रखतीं; बस, केवल प्रेम करती हैं। चातक की तरह अपमानित होने पर भी अपने लक्ष्य से नहीं गिरतीं। क्योंकि “चातक रटन घटे घटि जाई” का उनका सिद्धान्त है। अजो! जिन पर जीवन वार डारा सर्वस्व न्योछावर कर दिया, बदले में उनके प्रेम न करने पर यदि उनसे वैराग्य हो जाय तो फिर कुछ स्वारस ही नहीं। स्वाद तभी कि प्रेमी की ओर से शतधा सहस्रधा अपमानित होने पर भी चातक के जैसी रटन न घटे। प्रत्युत, उत्तरोत्तर रटन बढ़ती ही जाय, चाहे कितने ही तिरस्कार क्यों न हों। सुवर्ण को जितना ही तपाया जायगा, जितना ही उसका निघर्षण-छेदन-तापताड़न किया जायगा, उतना ही वह मूल्यवान् होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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