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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अतः उभय उभयभावात्मा, उभय उभयरसात्मा है। यहाँ कुछ व्रजांगनाएँ राधांशभूता हैं। अंश भी बहुत ही स्वल्प है। राजराजेश्वरी श्रीरासेश्वरी राधा के पादारविन्द की नखमणि ज्योत्स्ना की छटा का एक स्वल्पभाग, तद्भूता व्रजांगना तद्रूप होने के नाते अपने को अभिन्न मानती हैं। इस प्रकार भावना से भी अभेद होता है। वस्त्राभरण से भी व्रजांगनाएँ अपने को श्यामाभिन्न समझती हैं। उन्होंने जो नील निचोल पहना है, वक्षोज में जो मृगमद लेपा है, वह सब श्याम ही है। भीतर-बाहर श्याम ही श्याम है। किसी भावस्निग्ध का बड़ा ही सुन्दर सूक्त है-
व्रजबालाओं ने अपने कानों में नीलकमल के ‘कर्णफूल’, नेत्रों में अंजन और हृदय में नीलवर्ण की मेहन्द्रगणि का हार पहना है। लोग समझेंगे, उन्होंने इस वस्तुओं से अपना श्रृंगार किया है। पर बात ऐसी नहीं। उन्होंने इन श्यामवर्ण की वस्तुओं को धारण करके प्राणधन श्यामसुन्दर को ही धारण किया है। उनका तो अखिल मण्डन समस्त श्रृंगार एकमात्र ‘श्रीहरि’ ही हैं। वे इन सोने-चाँदी के कंकड़, पत्थर के भूषणों को नहीं पहनतीं। अपने कानों में उन्होंने जिस श्यामसरोरुह को सजाया है, वह साधारण सरोरुह नहीं, अपितु पूर्णानुराग-रससारसमुद्भूत है। कमल का नाम पंकज है, वह पंककीचड़ से उत्पन्न होता है। पर जिस पंकज को उन्होंने धारण किया है, वह साधारण मिट्टी की कीच में नहीं उपजा, वह पूर्णानुराग-दुग्धसरोवर की कीच में उपजा है। जब सरोवर दूध का, तब उसकी कीच नवनीत (मक्खन) की होगी। जब भूपंकज लोकातिशायी सौन्दर्य-सौगन्ध्य सम्पन्न होता है, तब पूर्णानुराग-रससारसमुद्भूत सरसिज के सौरभ्यादि की कीमत कौन आँके? ऐसे ही व्रजबालाओं ने यह साधारण करिखा आँखों में नहीं लगाया, अपितु, उस सौन्दर्य-सुधाजलनिधि श्रीघनश्याम को ही सदा के लिये अपने नेत्र-निकुन्ज में निवास दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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