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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यह बात ‘रागानुगा’ भक्ति से ही शीघ्र सिद्ध होती है। इसीलिये लौकिकता, कान्तभाव, औपपत्य तक श्रीरूप गोस्वामी आदि अंगीकृत करते हैं। जल की मधुरता में औपपत्य नहीं कहा जा सकता। तात्पर्य यह कि लौकिकता के भाव की अधिकता से अधिकता होती है। उससे अत्यन्त उत्कण्ठा होती है। उत्कण्ठा से परमानुराग का उदय होता है। उसी से तदात्मकता होगी। तभी ‘लीला’ स्वयं ग्रहण करने को दौड़ पड़ेगी। तभी ज्ञात होगा कि कैसे रमापति की विचेष्टाओं से गोपांगनाएँ परिगृहीत हुईं। श्रीकृष्ण की ललित गति, स्मित, सानुराग ईक्षण, विविध मनोरमालाप और विहार, इनसे गोप-सीमन्तिनियों का चित्त उनमें खिंच गया। वे आनन्दसिन्धु में निमग्न हो गयीं। तन्मयता प्राप्त होने पर उन-उन चेष्टाओं को करने लगीं। चेष्टानुकरण में तन्मयता की आवश्यकता है। श्रीभगवान की लीला रोम-रोम में जब स्थायी भावापन्न हो जाय, तब अनुकरण किया जाता है। भक्त भी अनुकरण कर सकता है अथवा लीला ही जब उन्हें स्वयं गृहीत कर ले, तब अनुकारण हो सकता है। जैसे कहीं भक्त भगवान को ग्रहण करता है, तो कहीं भगवान ही उसे ग्रहण करते हैं। यहाँ उन लीलाओं ने गोपप्रमदाओं को गृहीत किया, इसका अधिक स्फुटीकरण इसमें है-
गोपसुन्दरियाँ उस समय अपनी गति से हंस, सिंह और गजेन्द्र को भी लजाने लगीं, उनका मन्दहास काम को भी विस्मय उत्पन्न करने लगा। ऐसे ही प्रेक्षण, भाषण आदि हुए। उनके स्वरूप में गोपललनाओं के मन आदि तल्लीन हो गये। ऐसा अद्भुत अनुरागोद्रेक अन्तःकरण की कोमलता का द्योतक है। यहाँ अन्योऽन्यात्मकता का वर्णन है। पहले स्मित आदि स्थिर हुए, फिर वे लीला आदि के साथ गोपरामाओं में प्रतिबिम्बित हुए और उनका इनमें प्रतिबिम्बन हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., 10 स्कं., 30 अ., 3 श्लोक)
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