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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीनृसिंह भगवान से प्रह्लाद ने यही कहा-
इस तरह जीवात्मा को इन्द्रियाँ और उन्हें विषय, चुम्बक जैसे लोहे को खींचे, खींचते हैं। परन्तु जब यह कृष्णग्रह से गृहीत होता है, तब ये सब कूच कर जाते हैं। यह ऊँचे लोगों की बात है। नहीं तो इधर हम चाहते हैं कि किसी तरह यह मन उस कृष्णग्रह के चक्कर में आ जाय पर जरा भी नहीं फँसता। न वे ही फँसाते हैं और न यही फँसता है। उधर यह हाल कि नहीं चाहते कि यह उनमे फँसे, पर वह ग्रह जबर्दस्ती फँसाता है और ऐसा पकड़ता है कि फिर लाख प्रयत्न करने पर भी छोड़ता ही नहीं। व्रजांगनाएँ उसी उच्च कोटि की हैं। ‘लीला’ ने स्वयं इन्हें गृहीत किया। यह व्रज का महत्त्व है। व्रज की साधारण स्त्री भी ‘रमा’ है, वृक्ष कल्प तरु हैं, जल अमृत है और श्रीवृजांगनाएँ तो रमा-पूज्या हैं, क्योंकि उन्हें श्रीकृष्ण ने हठात् और स्वयं ग्रहण किया है, वे प्रमदा-प्रकृष्टमदा हैं, श्रीश्यामसुन्दर नटनागर की सखी हैं। ऐसी स्थिति में लीला ने स्वयं ही इन्हें ग्रहण किया। यह प्रभु कर्तृक अनुकम्पा है। अतः ‘तास्ता विचेष्टा एव ता जगृहुः’ अर्थात गोपांगनाओं ने उन-उन विचेष्टाओं को ग्रहण नहीं किया, अपितु उन-उन चेष्टाओं ने, लीलाओं ने, स्वयं ही उन्हें ग्रहण किया। मूल बात तो यह है कि वे तदात्मा पहले ही हो चुकीं। श्रीश्यामसुन्दर की लीला में आसक्तचेता पहले ही हो गयीं। अनुकरण में तभी स्वाद आता है, जब अनुकर्ता तदनुसंपृक्त हो ले, भेद मिट जाय, अभेद हो जाये। इसके लिये पवित्र वातावरण हो, एकान्त सेवन हो। विपद्संहारी, गर्वापहारी, रसिकविहारी का भृंगी-कीटन्याय द्वारा अनुसन्धान हो। उसके कोटि-कोटि कन्दर्पदर्पदलनपटीयान् लोकोत्तर लावण्यभर-निर्भर श्रीमुखारविन्द का अनुसन्धान हो और उनकी लीला, तत्परिकर आदि का अनुसन्धान हो, इन सबके समुचित स्वरूप में होने पर आवेश होता है, वही सच्चा है। उसी समय आनन्दघन घनश्याम अपने कमलनयन से उसे निहारकर निहाल कर देते हैं। सदा के लिये अपना लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., 7 स्कं., 9 अ., 40 श्लोक)
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