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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यह एक विशिष्ट स्थिति है-प्रेमी को संयोग में कुछ शान्ति रहती है। पर विप्रयोग दशा में उद्वेलित समुद्र की तरह श्रृंगार की स्थिति होती है। उस समय वह मर्यादा तोड़ देता है, प्रेमी के धैर्य का पुल टूट जाता है।कहा है-
यह अद्वैती का अद्वैत है। पर यहाँ का अद्वैत और है, यहाँ तो आलम्बन ही सर्वत्र दीख पड़ रहा है। यही दशा श्रीलालजू की है। वे वियोग में अपनी प्राणेश्वरी को सर्वत्र देख रहे हैं। यों संयोग और वियोग में वियोग का महत्त्व है, पर वियोग में आनन्द कब आता है? हम सब अनादि काल की वियोगिनी हैं, वियोगिनी इसलिये कि जीव स्वल्पज्ञ है, परतन्त्र है और पारतन्त्र्य ही स्त्रीत्व है, इसका वर्णन अन्यत्र है। हाँ, तो हम सब अनादि काल की वियोगिनी हैं, पर क्या वह आस्वाद है? जन्म-जन्मान्तर से युग-युगान्तर से शूकर, कूकर, कीट, पतंग बनते-बनते मर रहे हैं। उस परप्रेमास्पद का वियोग जन्म-जन्मान्तर से हो रहा है, पर वियोगजन्य आनन्द का कभी स्वप्न में भी स्वाद नहीं आता। इसका कारण यही कि उस तत्त्व का कभी साक्षात्कार नहीं, श्रवण तक नहीं, ‘श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः’ तब कैसे आनन्द मिले? पहले सम्प्रयोग हो, वस्तु का थोड़ा परिचय मिले, रस का कुछ पता लगे, तब पुनः उसके लिये उत्कट उत्कण्ठा हो, तब कहीं उसके वियोग का आस्वाद हो। देवर्षि नारद ने जब प्रथमावस्था में महात्माओं के प्रमाद से तत्त्व का थोड़ा पता पाया और जंगल में जाकर परिश्रमपूर्वक जब अनुसन्धान करने लगे तो एक क्षण के लिये उन्हें हृदय में कुछ चमत्कार मिला। देवर्षि नारद के शब्द हैं-
फिर उन्होंने बहुत प्रयत्न किया पर वह चमत्कार उन्हें नहीं मिला। वे बहुत ही दुःखी हुए, जैसे रंक को बड़ी कठिनता से मिली निधि और फणि की मणि खो जाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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