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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीरासेश्वरी वृषभानुनन्दिनी के बिना आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र के मुखचन्द्र का दर्शन और श्रीश्यामसुन्दर मदनमोहन के बिना श्रीव्रजेश्वरी महारानी का दर्शन भी उन्हें तृप्त नहीं करता, सुख-आनन्द नहीं देता। वे तो युगल सरकार का, श्रीराधाकृष्ण का, श्यामाश्याम का युगल दर्शन चाहती हैं। फिर जहाँ दोनों में से एक भी दर्शन नहीं-अथवा दोनों का ही दर्शन नहीं, वहाँ तो सन्ताप का कुछ ठिकाना ही नहीं। अतः कहा- ‘अतप्यंस्तमचक्षाणाः’ हाय, हम हतभाग्याओं को प्रिया-प्रियतम में से एक के भी दर्शन नहीं। अभी प्रियतम के दर्शन हो रहे थे उन्हें भी विधाता के ओझल कर दिया। शारदी पूर्णिमा के स्वच्छ, शुद्ध निष्कलंक पूर्णचन्द्र, श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन बिना यह चन्द्र प्रलयकालीन द्वादश आदित्यों के समान सन्ताप दे रहा है। यह आह्लादकर चन्द्र नहीं, अपितु प्रलयकाल के महाताप के द्वादश आदित्य एकत्र उदित हुए हैं। ये किंशुक कुसुम और अरुण वस्त्र नहीं हैं, अपितु ये दावाग्नि की लपटें हैं। अपने प्रियतम प्राणधन मनमोहन श्यामसुन्दर को न देखकर, उनके दर्शन-काल में, संयोग के समय में आह्लाद देने वाली इन वस्तुओं में अधिकाधिक तापकता की गोपांगनाओं को प्रतीति हो रही है। कान्तभाववती तथा सख्यभाववती दोनों की ही यह सन्तप्त दशा है। यह ठीक ही है, प्राणी को प्राण के वियोग में, अभीष्ट के अभाव में दुःख होता ही है। फिर जो प्राणों का भी प्राण है, मन का भी मन है, श्रोत्र का भी श्रोत्र है, चक्षु का भी चक्षु है, वाणी की भी वाणी है, उसके विप्रयोग में असह्य पीड़ा का होना स्वाभाविक है। श्रुति है- ‘प्राणस्य प्राणः’ महात्मा तुलसीदास जी ने भी कहा है- “प्राण प्राण के जीव के जिय सुख के सुख राम। तुम तजि तात सुहात गृह जिनहिं तिनहिं विधि वाम।।” श्रुति का वचन भी है- “एतस्यैवानन्दस्य मात्रामुपजीवन्ति।” जगत् में जितने भी महान् से महान् आनन्द हैं, सुख हैं, वे सब इसी आनन्द के एक अंश में कण में समा जाते हैं। वे सब इसी की क्षुद्र विभूति हैं। चन्द्र में आह्लादकता, नीरस में सरसता, उस पूर्णतम पुरुषोत्तम से ही है। इसके न होने से आह्लाद कहाँ? सरसता कहाँ? सौख्य कहाँ? फिर तो उरग श्वास की तरह सब विषमय दुःखमय होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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