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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
निरंजन ने श्रीयशोदा से अंजन लगवाया, वह अनंग (निरंग) सांग बन गया, उसने खूब व्रजदेवियों से उपाहृत छाकें छकीं। इसी समता में क्रीड़ा होती है। तभी तो- “उवाह भगवान कृष्णः श्रीदामानं पराजितः” चुटियाँ पकडकर श्रीदामा ने भगवान से अपना दाँव लिया, उनकी पीठ पर चढ़कर टिक्-टिक् करके उसने सवारी साधी। यदि श्रीदामा उनमें और अपने में जरा भी भेद पाता तो यह कहने की कैसे हिम्मत करता- “न्यारि करो हरिआपन गैया, ना हम चाकर नन्द बाबा के ना तू मोर गुसैंया, कहा भयो दस गैया अधिकैंया” इस तरह प्रकार भगवान अपनी सर्वज्ञता को भूलें, हम अपनी अल्पज्ञता को भूलें और इस तरह समानता स्थापित हो। इस समानता के रूप में भगवान यहाँ पधारे हैं। इस रूप में इन पर व्रजांगना न्योछावर हो रही हैं। वे उन प्रियतम प्राणधन को-बालमुकुन्द को बालभाव से देखती हैं, बाहुलता से वेष्टित करती हैं और उनकी बलैया लेकर फूली नहीं समातीं। ऐसी स्थिति में वे अन्तर्हित को क्या जानें। विशेषकर वे व्रजांगना हैं, व्रज की अंगना हैं, भोली हैं, मुग्धा हैं, वे तो साक्षात् भगवान को ही जानती हैं। अतः “अतप्यंस्तमचक्षाणाः करिष्य इव यूथपम्” उन्हें न देखकर बड़ी सन्तप्त हुई, जैसे हथिनियाँ हाथी को न देखकर व्याकुल होती हैं। ‘तमचक्षाणाः’ से यह भाव बतलाया कि-ये विशुद्धानुरागवती हैं, कान्तभाववती नहीं। अतः दर्शन, स्पर्श ही मुख्य है, रमण मुख्य नहीं। अत: ‘करिष्य इव यूथपम्’ का उदाहरण है। करिणी स्पर्शकुशल होती हैं। एक सूक्त में कुरंग, मातंग‚ पतंग, भृंग और मीन की एक विषय की कुशलता बतायी गयी है- “कुरंगमातंगपतंगभृंग मीना हताः पंचभिरेव पन्च” अतः दर्शन और स्पर्शकुशला सख्यभाववती अथवा विशुद्धानुरागवती व्रंजागना श्रीश्यामसुन्दर का दर्शन न पाकर अति सन्तप्त हुई। साधारणतया दो प्रकार की गोपी हैं, एक सख्यभाववती, दूसरी कान्तभाववती। चन्द्रावली प्रभृति कान्तभाववती हैं। इन्हें स्पर्शसुख की अधिक आकांक्षा रहती है; सख्यभाववती केवल दर्शन से तृप्त रहती हैं। यहाँ इन्हीं के लिये ‘तमचक्षाणाः’ पद है। गोपियाँ श्रीयुगल सरकार के दर्शन के लिये लालायित रहती हैं। इनकी एक के दर्शन से तृप्ति नहीं होती, वे दोनों ही के दर्शन चाहा करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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