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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यह आशा कल्पलता है। इसे नेह के अनुराग के जल से सींचना चाहिये। शनैः-शनैः इसमें नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पुष्प और फल अवश्य लगेगा ही। इस भाव का आना कि प्रभु दुर्लभ हैं, इसे स्वयं भगवान ने दूर किया है-श्रुति कहती है-
तुम और तुम्हारे प्रभु एक हैं, दोनों सुपर्ण हैं, दोनों का साजात्य सम्बन्ध है, तब मिलने में कुछ कठिनाई नहीं। कहा जा सकता है-कहीं-कहीं साजात्य में भाई-भाई में भी प्रेम नहीं रहता, इसको दूर करने के लिये-‘सखाया’ कहा। जब परस्पर सख्य-सौहार्द होगा तब मिलने में कोई कठिनाई न रहेगी। हाँ, यदि सखा भी दूर देश में हो तो अवश्य विघ्न हो सकता है; जैसे चन्द्र और समुद्र। परन्तु यहाँ तो यह बात भी नहीं है क्योंकि- ‘समानं वृक्षं परिषस्वजाते’ शरीररूप एक ही वृक्ष पर दोनों को निवास है, सादेश्य है। फिर भी “असंगों नहि सज्जते” से उस परतत्त्व को जब असंग बतलाया गया तब उसमें प्रेम कैसे हो? इसका भी समाधान करते हुए श्रुति ने ‘सयुजा’ विशेषण दिया। अर्थात् जीव और ब्रह्म दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है, दोनों एक ही हैं। जैसे जल और तरंग घट और मृत्तिका, उत्पल और नैल्य एक ही हैं, इनमें से एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते। चिदचित् भेदाभेद आदि सभी वादों में यह बात माननी पड़ती है। ऐसी स्थिति में निराश होने की बात ही नहीं रह जाती। भगवान तो स्वयं इस विषमता को मिटाने का प्रयत्न करते हैं, वे गोपों के साथ प्रेम करने के लिये ही गोपाल बने हैं। यहाँ तो “अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति” का भेद भी वृन्दावनगोचराः से मिट गया। यहाँ तो उस ‘अनशिता’ अभोक्ता ने गवाँरी ग्वालिनियों के मक्खन की चोरी की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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