भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं-
गोपियों की स्थिति ऐसी ही भगवन्मयी थी। वे जो कुछ देखती थीं, जो कुछ सूंघती थीं, जो कुछ स्पर्श करती थीं, सब श्याममय था- ‘जित देखूँ तित श्याममयी है।’ उनका अन्तःकरणरूप सरोवर श्याम-रंग से रंग गया था। अन्तःकरण जिस-जिस इन्द्रियरूप प्रणाली के द्वारा निकलकर जिस-जिस विषय को व्याप्त करके प्रकाशित करता था वही श्याममय प्रतीत होता था। अतः भगवान कहते हैं-‘अयि मानिनियों! आप लोगों का मेरे प्रति अभिस्नेह है। आपका चारों ओर का प्रेम बटुरकर मुझमें ही लग गया है। अतः आप यन्त्रिताशया हैं, आपका चित्त विवश है। सो यह उपपन्न ही है। आप इसकी अनुपपत्ति की आशंका न करें; क्योंकि जब अवान्तर धर्म सर्वात्मा श्रीहरि के स्मरणरूप परमधर्म में बाधक होने लगते हैं तो वे त्याज्य हो ही जाते हैं। यद्यपि मेरे प्रति प्रेम तो सभी का होता है, तथापि सर्वकर्म-संन्यास में उसी का अधिकार है जो श्रौत और स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्धान्तःकरण होकर या तो निर्विशेष परब्रह्म का श्रवण, मनन और निदिध्यासनपूर्वक अपरोक्ष साक्षात्कार कर चुका हो या भगवान के पदपद्मपराग का सुरसिक मधुकर होकर सांसारिक भोग-वासनाओं से ऊपर उठ गया हो। ऐसा महानुभाव बहुत दुर्लभ है; क्योंकि इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति विषयों की ही ओर है; अतः आचार्य लोग साधनों पर ही जोर दिया करते हैं। इधर भगवान भी व्रजांगनाओं की स्वरूपनिष्ठा को पुष्ट करते हुए उन्हें पतिशुश्रूषा का ही आदेश देकर सर्वसाधारण के लिये श्रौत-स्मार्त्त कर्मों की आवश्यकता का ही प्रतिपादन कर रहे हैं। भगवान का इस सारे कथन से क्या-क्या तात्पर्य है, सो तो वे ही जानें। हमें तो जो कुछ उन्हीं के कृपाकण से प्राप्त हुआ है उसी का निरूपण कर रहे हैं। हम पहले कह चुके हैं कि श्यामसुन्दर श्रीहरि के वामांग में रासेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी विराजती हैं। वे उन्हीं की आह्लादिनी शक्ति हैं; स्वरूपतः भगवान के साथ उनका अभेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज