भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देखो, जिस समय वृषभानुनन्दिनी जी ने कहा कि महाराज, मैं तो थक गयी तो यहाँ तक उनका कथन ठीक था; किन्तु इसके आगे जो यह कहा कि ‘नय मां यत्र ते मनः’ आपकी जहाँ इच्छा हो वहाँ मुझे ले चलिये-यह कथन उनके अनुरूप नहीं हुआ। इसी से भगवान अन्तर्धान हो गये। श्रीराधिका जी मानिनी नायिका थीं; उनको नायक के आश्रित नहीं होना चाहिये था। उन्होंने जो आश्रयत्व-व्यंजक भाव प्रकट किया; यह उनके अनुरूप नहीं था। इससे रस भंग हो गया और रासलीला का अविर्भाव रसबृद्धि के लिये ही हुआ था। इसी से भगवान अन्तर्धान हो गये। गोपिकाओं ने कहा था कि ‘हे कृष्ण, हम आपका वेणुनिनाद सुनकर नही आयीं। हम तो शरच्चन्द्र की दुग्धसदृश शुभ्र चन्द्रिका से अत्यन्त शोभा प्राप्त इस कुसुमित वनावली की छटा निहारने आयी हैं। हमें यहाँ ठहरने के लिये विशेष अवकाश ही नहीं है’ उस समय भगवान को यही कहना पड़ा कि ‘हे मानिनियों! यह ठीक है, आप हमारी वंशी-ध्वनि सुनकर हमारे दर्शनों के लिये तो नहीं आयीं, परन्तु अब यदि हमारे सौभाग्य से आप यहाँ पधारी हैं तो कुछ काल ठहरिये।’ यही बात इस समय भगवान कह भी रहे हैं, “मानिनियों! हम जानते हैं, आप ऊपर से ही कह रही हैं कि ‘हम वृन्दारण्य की शोभा निहारने के लिये आयी हैं’, तथापि भीतर से तो हमारे प्रति आपका अवश्य अनुराग है। यदि कहो कि आप हम कुलांगनाओं के लिये ऐसे अननुरूप वचन क्यों कहते हैं हम पर पुरुष में कैसे अनुराग कर सकती हैं? तो ऐसी बात नहीं है, मेरा तो सौभाग्यातिशय ही ऐसा है कि जो रस-रीति से अनभिज्ञ शुष्क हृदय पशुप्राय जीव हैं, उनका भी मुझमें अनुराग हो जाता है, फिर आप तो रसिकशिरोमणिभूता हैं। अतः मेरे प्रति आपका अनुराग होना तो सर्वथा उचित ही है। कामिनियों के हाव-भाव कटाक्ष का रहस्य तो कामुकों को ही ज्ञात हो सकता है। आप लोग रसाभिज्ञों में शिरोमणिभूता हैं अतः जिस श्रृंगारमूर्ति मुझ आनन्दकन्द के प्रति स्वभावतः सब जीवों का आकर्षण होता है उसके प्रति आपको अनुराग होना ठीक ही है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज