भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देखो, खर और दूषण कैसे क्रूर राक्षस थे? वे अपनी बहिन के अपमान से भित होकर बदला लेने के लिये ही आये थे। तथापि जिस समय उन्होंने प्रभु का रूप-माधुर्य देखा तो कहने लगे-
भगवान तो साक्षात अपने आत्मा हैं, जिन अन्य पदार्थों में भी आत्मत्व का भ्रम हो जाता है उनके प्रति भी अपार प्रेम हो जाता है। देखो, शरीर में आत्मत्व का केवल भ्रम ही तो है; किन्तु उसके लिये मनुष्य संसार की सारी वस्तुओं को निछावर कर देता है। अतः भगवान कहते हैं कि इस प्रकार जब अज्ञ जन्तुओं का भी मेरे प्रति स्वाभाविक अनुराग है तो हे गोपिकाओं! आप तो परम पूजनीया हैं। आपको मेरे प्रति प्रेम हुआ- इसमें तो कहना ही क्या है। आप जैसी प्रणयिनी, जो योगीन्द्रमुनीन्द्रवन्द्यपादारविन्दा हैं, यदि लौकिक-वैदिक बन्धनों की अपेक्षा करके हमारे प्रेम से आकृष्ट होकर यहाँ पधारी हैं, तो यह उचित ही है। इस पर गोपिकाओं की ओर से यह प्रश्न हो सकता है कि महाराज! आपके प्रति तो सब प्रेम करते हैं किन्तु आप भी उनके लिये कुछ करते हैं या नहीं? इसका उत्तर यही है कि ‘प्रीयन्ते प्रीतिमेव कुर्वन्ति न तु किंचिदपि मत्तोऽभिवांछन्ति’ जीव मेरे प्रति केवल प्रेम ही किया करते हैं, मुझसे कुछ चाहते नहीं हैं। मेरे सम्मुख होते ही उनकी सारी कामनाएँ निवृत्त हो जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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