भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिसे तीव्र क्षुधा या तीव्र पिपासा होती है उससे कब बैठा जाता है? इसी प्रकार यदि भगवत्तत्त्व के न जानने में अपनी हानि सुनिश्चित हो और उसके ज्ञान में अपना परम लाभ निश्चित हो तो प्रमाद हो ही नहीं सकता। भगवती श्रुति कहती है- “इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।” याद रखें, यदि इस मनुष्य जन्म में आप भगवान का साक्षात्कार न कर सके तो ‘महतौ विनष्टिः’ सर्वस्वनाश हो जायगा। क्योंकि, जब दो रुपये की हानि की आशंका से रात को नींद नहीं आती तो सर्वस्वनाश की आशंका होने पर कैसे आलस्य सतायेगा? हमें जो काम करना है उसकी आवश्यकता का अनुभव करना चाहिये। भगवद्भजन में सर्वस्व लाभ है और उसकी उपेक्षा में सर्वनाश है-जब तक ऐसा सुदृढ़ निश्चय न होगा, भजन में प्रगति कैसे होगी? सामान्य रूप से यह बात सभी को निश्चित है कि एक दिन अवश्य मरना होगा। परन्तु यह निश्चय रहते हुए भी साठ-साठ वर्ष के बूढ़े भी दुराचार, दम्भ और पाप से निवृत्त नहीं होते। इसमें क्या हेतु है?- मोह। मोह ही उन्हें मृत्यु की घड़ी का विस्मरण करा देता है। एक तो इस प्रकार का मृत्यु का सामन्यरूपेण निश्चय और दूसरा अपने पुत्र या बन्धु की मृत्यु को देखकर होने वाला वैराग्य-क्या ये दोनों समान हैं? हमें भी अपनी मृत्यु का निश्चय है; परन्तु क्या हम उसकी ओर से निश्चिन्त नहीं हैं? किन्तु यदि हमें राजाज्ञा हो जाय कि आज से पाँचवें दिन तुम्हें फाँसी दे दी जायेगी तो फिर क्या पाँच दिन तक हमें नींद आ सकती है? अतः हमें ऐसा अभिमान न करना चाहिये कि हम परमार्थ-विषय को जानते ही हैं, हमें सत्पुरुष सच्छास्त्रों के संग की क्या आवश्यकता है? यदि तुम ऐसा सोचोगे तो तुम्हारी प्रगति शिथिल पड़ जायेगी। नहीं, इनका संग तो विवेक और वैराग्य उद्दीपन करने वाला है। इस उद्दीपन की बहुत आवश्यकता है। हमें विचारशक्ति को निरन्तर जागृत रखना चाहिये। इस प्रकार जब भजन की आवश्यकता सुनिश्चित रहेगी तो भजन में प्रमाद न होगा। यह कोई जादू-टोना या मन्त्र नहीं है, यह तो युक्ति और अनुभवसिद्ध बात है। उत्साह भंग होने से पुरुष निर्वीर्य हो जाता है; अतः उत्साह को स्थिर बनाये रखना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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