भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
मुनि ने कहा-‘राजन्! पूर्वकाल में मैं एक राजा था। संसार से निर्वेद होने पर मैं अपना राज्य छोड़कर सपत्नीक यहाँ तपस्या करने चला आया। एक दिन, जबकि मैं समाधिस्थ था, दैववश मेरी रानी की वृत्ति कुछ चंचल हो गयी और उसने संकल्प से ही मेरे साथ मैथुन किया। उससे वह गर्भवती हो गयी और यथा समय उससे यह पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र-प्रसव के पश्चात् उसने तो शरीर छोड़ दिया, फिर मैंने ही इसका लालन-पालन किया। कुछ वयस्क होने पर इसकी इच्छा राज्य भोगने की हुई। तब मैंने इसे योगाभ्यास में लगाया, उसमें सिद्धि प्राप्त करने पर इसने संकल्प से ही इस शिला में एक ब्रह्माण्ड रच लिया है। यह उस ब्रह्माण्ड का ईश्वर है। तुम्हारे अश्व को भी यह वहीं ले गया था।’ यह सब वृतान्त सुनकर कुतूहलवश राजकुमार को उस मुनि कुमार के संकल्पित ब्रह्माण्ड को देखने की इच्छा हुई। तब मुनि कुमार ने कहा-‘अच्छा, तुम मेरे साथ चलो।’ किन्तु जब राजकुमार ने उसके साथ शिला में प्रवेश करने का प्रयत्न किया तो वह सफल न हुआ। तब मुनि कुमार ने अपने योगबल से उसे अपने साथ ले लिया। उस शिला में प्रवेश करने पर उसे इस ब्रह्माण्ड की अपेक्षा भी अधिक विस्तृत ब्रह्माण्ड दिखाई दिया। वहाँ उसने ऐसा ही आकाश देखा; तथा वहीं के ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, वैकुण्ठ, पाताल और रसातलादि में जाकर ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवताओं का भी दर्शन किया। उसने यह भी देखा कि वहाँ वह मुनि कुमार ही सबसे अधिक पूजनीय है; वहाँ के देवगण भी उसे अपना ईश्वर समझते हैं। इस प्रकार केवल एक दिन में ही उसने वह सारा ब्रह्माण्ड देख लिया। तब उसे फिर इस लोक में आने की इच्छा हुई। उसके कहने से मुनि कुमार उसे बाहर ले आया; किन्तु उसने देखा कि वहाँ का सारा ही रंग-ढंग बदला हुआ है। जहाँ पर्वत था वह विस्तृत समतल भूमि है, जहाँ नदी थी वहाँ मरुभूमि दिखाई देती है और जहाँ वन था वहाँ नगर बसे हुए हैं। यह देखकर उसने मुनि कुमार से इसका कारण पूछा। मुनि कुमार ने कहा-‘तुम्हें मेरे ब्रह्माण्ड में तो एक ही दिन व्यतीत हुआ जान पड़ा था; किन्तु उतने ही समय में यहाँ कई युग बीत गये हैं। इसलिये अब यहाँ सब कुछ बदल गया है। तुम्हारे कुल में भी अब बहुत-सी पीढ़ियाँ बीत चुकी हैं; तुम्हारे सामने जितने मनुष्य थे उनमें तो केवल तुम ही रह गये हो।’ यह सुनकर राजा को बड़ा विस्मय और विषाद हुआ। फिर उसने मुनि कुमार से इसका रहस्य पूछा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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