भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
‘‘प्रतिबन्धो विसामग्री तद्धंतुः प्रतिबन्धकः।’’ इस कुसुमांजलि के वचनानुसार सामग्री-वैकल्य प्रतिबन्ध है और उसका हेतु प्रतिबन्धक है। यहाँ प्रतिबन्ध पक्ष प्रतिबन्ध का भाव के कारण होने और कारणापेक्ष ही प्रतिबन्ध का भाव के प्रतिबन्ध होने के कारण अन्योन्याश्रयग्रस्त होने से यदि कहा जाय कि प्रतिबन्ध का भाव में कारणता मानना ठीक नहीं है, तो यह अनुचित है, क्योंकि अभाव की कारणता मानकर ही कार्यानुदयमात्र ही से मन्त्रादि में कार्य प्रतिकूलता का बोध होता है और मणि, मन्त्रादि में कार्य की प्रतिबन्धता का निर्धारण किये बिना ही मन्त्रादि के अभाव में अन्वय-व्यतिरेक ही से कारणता का निश्चय होता है। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि अन्योन्याश्रयत्व उत्पत्ति या ज्ञप्ति में हुआ करता है यहाँ मन्त्र एवं तद्भाव (प्रागभाव) की परस्पर हेतुता न हाने से अज्ञात भी मन्त्र तथा तद्भाव की कार्य के प्रति प्रतिकूलता एवं कारणता होने से दोनों प्रकार का अन्योन्याश्रय नहीं है। यदि कहा जाय कि कार्यभाव से मन्त्रादि कारणाभावरूप माने जाते हैं, अत एव मन्त्रादि का अभाव भी कारण माना जाता है। एवंच मन्त्र तथा तदभाव में रहने वाले प्रतिबन्धकत्व और कारणत्व के अन्योन्यनिमित्तक होने से उपत्ति या ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रयता दुर्वार है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव की कारणता का अवगम हुए बिना भी कार्याभावमात्र से मन्त्रादि की कार्य प्रतिकूलता का ज्ञान हो सकता है, अत एव तदभाव की कारणता का भी ज्ञान अन्वय-व्यतिरेक से ही सुकर है। यदि कहा जाय कि मणि-मंत्रादि के सान्निध्य में, उभयथापि अग्न्यादि के रूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता, फिर भी दाहादि का प्रतिबन्ध होता ही है, अतः यदि स्वरूपातिरिक्त शक्ति न माने, तो प्रतिबन्ध असम्भव हो जायगा, इसलिये शक्ति माननी चाहिये, यह भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रतिबन्ध शब्द से बोधित होने वाला कार्य के प्रति औदासीन्य ही अग्नयादि में विशेष रूप से अपलब्ध होता है। यदि ऐसा न मानें, तो शक्ति मानने पर भी प्रतिबन्ध का विवेक कठिन हो जायेगा। शक्ति का नाश प्रतिबन्ध नहीं कहा जा सकता, अन्यथा प्रतिबन्ध हट जाने पर कार्याभाव की प्रसक्ति होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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