भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
सांख्य, नैयायिक और वैशेषिक आदि मतावलम्बियों की विवेकवती बुद्धि अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय और इन्द्रिय वृत्तिरूप बालकों को सर्वथा सुरक्षित नहीं करती। वह अपने बालकों को अग्नि से बचा तो लेती है, परन्तु अग्नि के भय का सर्वथा नाश नहीं करती; क्योंकि प्रपंच का अत्यन्ताभाव तो उस मत में है नहीं। यह काम तो अद्वैतनिष्ठ बुद्धि ही करती है। ऐसा कहकर हम अद्वैतवाद का पक्ष नहीं करते; हमारा तो केवल यही मत है कि जिनके मत में पूर्ण सच्चिदानन्दघन परब्रह्म से भिन्न किसी दूसरी वस्तु की सत्ता रहती है उनके यहाँ तो दुःख का बीज रह ही जाता है। इसी दृष्टि से बुद्धियों के प्रति भगवान का यही कथन है कि ‘शुश्रूषध्वं पतीन’ तुम परब्रह्मा-काराकारित वृत्ति में परिणत होकर इन्हें ब्रह्मामृत पान कराओ और इनकी तृष्णा को शान्त करो-इनका मनोरथ पूर्ण करो। वस्तुतः विषय-सेवन से इन्हें सुख नहीं मिल सकता। भला मृग तृष्णा का जल पीने से किसी की प्यास गयी है? उसमें जल है ही कहाँ? इसी प्रकार क्या विषय-भोजन्य सुखों से इन्द्रिय और इन्द्रिय वृत्तियों को शान्ति मिल सकती है? नहीं, क्योंकि विषय और विषय-सुख तो हैं ही नहीं। अतः तुम सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का ही अनुसन्धान करो। इससे यह नाम रूपात्मक प्रपंच निवृत्त हो जायगा; फिर तो एकमात्र अचिन्त्यानन्द सौख्य-सुधासिन्धु परमात्मा ही रह जायगा और फिर ये उसी की माधुरी का पान करेंगी। वस्तुतः इन्द्रियों से विषयों का स्फुरण नहीं होता, बल्कि विषयावच्छिन्न चेतन का ही होता है। सबका अधिष्ठानभूत चेतन ही सत्य वस्तु है। उसके सिवा अन्य वस्तु की सत्ता ही कहाँ है? यहाँ यह सन्देह हो सकता है कि ब्रह्म इन्द्रियों का विषय कैसे होगा, वह तो अशब्द, अस्पर्श और मन एवं इन्द्रिय आदि का अविषय है। इसमें कहना यह है कि वस्तुतः ब्रह्म ही सारी इन्द्रियों का विषय हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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