भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
शास्त्र में तो जहाँ कर्म का प्रकरण है वहाँ ज्ञान की निन्दा की गयी है और जहाँ ज्ञान का प्रकरण है वहाँ कर्म और उपासना की तुच्छता दिखलायी है। ईशावास्योपनिषद कहती है-
अर्थात जो केवल कर्म में ही तत्पर रहते हैं वे अदर्शनात्मक अज्ञान में प्रवेश करते हैं और जो केवल उपासना में ही लगे हुए हैं वे तो उनसे भी अधिक अँधेरे में जाते हैं। किन्तु यहाँ जो कर्म और उपासना की निन्दा की गयी है वह कर्म या उपासना के त्याग के लिये नहीं है, बल्कि उनके समुच्चयानुष्ठान का विधान करने के लिये हैं। मीमांसकों का मत है- ‘नहि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्त्तते अपितु विधेयं स्तोतुम्।’ यदि उपर्युक्त श्रुति का अभिप्राय कर्म और उपासना के त्याग में ही होता है तो श्रुत्यन्तर से जो कर्म और उपासना का विधान सुना जाता है वह अप्रामाणिक हो जायगा और इस प्रकार श्रुति विरोध भी होगा। इसी से भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं- ‘न शास्त्रविहितं किंचिदप्यकर्तव्यतामियात्।’ अतः इस निन्दा का अभिप्राय कर्म और उपासना के त्याग में नहीं बल्कि उसके समुच्चय की स्तुति में है। इसलिये केवल कर्म या केवल उपासना में प्रवृत्त न होकर उन दोनों का साथ-साथ अनुष्ठान करना चाहिये। यदि कर्म और उपासना से अन्धन्तमः की ही प्राप्ति हुआ करती तो ‘विद्यया देवलोकः कर्मणा पितृलोकः’ ऐसी विधि न होती। यद्यपि कहीं-कहीं त्याग के लिये भी निन्दा की जाती है; जैसे मिथ्या भाषणादि की। किन्तु यहाँ ऐसा नहीं हो सकता; क्योंकि यहाँ इसकी विधि पायी जाती है। श्रुति में ऐसा बहुत देखा जाता है कि कहीं एक वस्तु का विधान और कहीं उसी का निषेध है। आपाततः इसमें बहुत विरोध मालूम होता है। विधि धर्म के लिये होती है और निषेध पाप के लिये। एक ही कर्म में पाप और पुण्य दोनों हो नहीं सकते। किन्तु यह देखा जाता है कि ‘अग्नीषोमीयं पशुमालभेत’ और ‘मा हिंस्यात्सर्वभूतानि’ इत्यादि वाक्यों में से एक हिंसा का विधान और दूसरा उसका निषेध करता हैं इसका तात्पर्य यही समझना चाहिये कि यागोपयुक्त हिंसा का निषेध नहीं है और यागानुपयुक्त हिंसा का निषेध किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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