भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह ठीक है कि अनभिज्ञ लोग ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार किये बिना ही लौकिक-वैदिक कर्मों का मिथ्यात्व मान बैठेंगे। किन्तु यह उनकी अनधिकार-चेष्टा ही होगी। जिन्होंने श्रौत-स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान नहीं किया; जिन्हें इहामुत्र फलयोग से वैराग्य नहीं हुआ, जो सदसद्वस्तु का विवेक करने में असमर्थ हैं, जिनके पास शमदमादि साधनों का भी अभाव है और जिन्हें विषयी जनों की भोगेच्छा के समान तीव्र मुमुक्षा नहीं है वे तो ब्रह्मजिज्ञासा के ही अधिकारी नहीं हैं। ऐसे लोगों को ब्रह्मज्ञान में प्रवृत्त होने के लिये तो भगवान शंकराचार्य ने निषेध किया है। श्रीगोसाईं जी महाराज भी कहते हैं- ‘वादि विरति बिनु ब्रह्म-विचारू।’ ऐसे अनधिकारी लोग जब ब्रह्मविद्या की ओर प्रवृत्त होते हैं तब वे धर्म, कर्म और पाप-पुण्यादि का तो मिथ्यात्व निश्चय कर लेते हैं किन्तु भोग सत्य ही मानते हैं। अतः यह निश्चय हुआ कि ‘वत्सा बालाश्च क्रन्दन्ति’ यह कथन ठीक ही है। इसी का उत्तर भगवान देते हैं कि वे नहीं रोयेंगे, क्योंकि इसमें वेद-शास्त्रादि का दोष नहीं है। शास्त्र में तो सभी प्रकार के साधनों का निरूपण है। उसमें यह नियम नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये वे सभी साधन कर्तव्य हैं; उनमें जिसके लिये जो साधन उपयुक्त हो उसे उसी का आश्रय लेना चाहिये। औषधालय में सभी प्रकार की औषधियाँ रहती हैं। इस बात का निर्णय तो वैद्य ही कर सकता है कि किस रोगी को कौन औषधि देनी चाहिये। यदि वैद्य की शरण न लेकर रोगी स्वयं ही मनमानी औषधि लेने लगे तो इसमें वैद्य या औषधालय का क्या दोष? यह तो उसी का अपराध है। इसी प्रकार शास्त्रोक्त कौन साधन किसके लिये उपयुक्त है, इसका निर्णय तो श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु ही कर सकते हैं। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले साधकों को उन्हीं की शरण लेनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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