भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
आखिर जाओगे कहाँ? दर-दर घूमते जन्म-जन्मान्तर बीत गये, कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला। अब प्रभु के सिवा और आश्रय ही कहाँ है?
भगवान की कृपा कब होती है इसका कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिये हर समय सावधान रहो। ऐसा न हो, तुम्हारी असावधानी में प्रभु कृपा की घड़ी यों ही निकल जाय और तुम उससे वंचित ही रह जाओ। मान लो, भगवान कोई परदानशीन स्वामी हैं और तुम उनके द्वार पर बैठे हो। वे हर समय तो परदे से बाहर आते नहीं हैं परन्तु जिस समय वे आये उस समय तुम सो गये, तो इसमें प्रभु का क्या दोष है? इसलिये तुम सदा सावधान रहो। प्रभु अतिथि का अनादर कभी नहीं करते। वे दीनवत्सल हैं; उन्हें दीन बहुत प्यारे हैं। इसी से श्रीगोसाईं जी कहते हैं-
इसलिये हमें प्रभु को छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। धनियों के द्वारों पर हम बहुत भटक लिये। अब उनका मुख मत देखो। वेदान्तदेशिकाचार्य जी कहते हैं-
दुरीश्वरों के द्वार की बहिर्वितर्दिका पर दुराशा को लेकर जो बैठना है उसके लिये मैंने हाथ जोड़ दिया; क्योंकि हमारे पास तो धनंजय के रथ का अति सुन्दर भूषण अंजनाभ श्रीकृष्ण ही अनपाय धन है। फिर हमें और की क्या आवश्यकता है? परन्तु सो मत जाना; सदा सावधान रहकर प्रभु की ओर टकटकी लगाये रहना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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