भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ अपने में बुद्धियों का निश्चय दृढ़ करना है; इसलिये मानों बुद्धियों के प्रति भगवान कहते हैं कि ‘पतीन शुश्रूषध्वम’ यहाँ उपाधि भेद के कारण बुद्धियों के अनेक पति उत्पन्न हो सकते हैं। बुद्धि स्वभाव से ही नामरूपात्मक दृश्य की ओर जाती है। इसी से भगवान कहते हैं- ‘तद्यात मा चिरं गोष्ठम्’ अर्थात् अब तुम और अधिक काल दृश्य की ओर मत जाओ। बल्कि दृश्य की ओर से निवृत्त होकर अपने अवभासक समस्त बुद्धियों के साक्षी सर्वान्तर्यामी परब्रह्म का ही चिन्तन करो। परन्तु ऐसा कोई-कोई ही कर पाता है; क्योंकि- “परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्।” इसलिये- “कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्त्वमिच्छन्।।” अहा! भगवान का वह सौन्दर्यसुधा कितना महान् है। भगवत्पाद भगवान शंकराचार्य प्रबोध सुधाकर में लिखते हैं- ‘अरी बुद्धि, तू तराजू के एक पलड़े में सारे संसार का सुख और दूसरे में परमानन्दकन्द भगवान कृष्ण के सौन्दर्यसुधा का एक कण रख तब तू देखेगी कि भगवान का सौन्दर्यकण ही भारी है। अतः तू सांसारिक विषयों को छोड़कर भगवान कृष्ण की सौन्दर्यसुधा का पान किया कर।’ इसी से भगवान कहते हैं- ‘अरी बुद्धियो! अब तुम गोष्ठ प्रपंच में मत जाओ, वहाँ बहुत रह चुकीं। उस स्थान में तो पशु रहा करते हैं; तुम तो अपने परम प्रियतम मुझ परब्रह्म का ही आश्रय लो।’ यदि कहो कि हम स्वतंन्त्र नहीं हैं, हम कैसे आपकी ओर आयें! तो भगवान कहते हैं तुम अवश्य पराधीन हो, क्योंकि तुम करण हो और करण अपनी प्रवृत्ति के लिये कर्ता के अधीन हुआ करता है; अतः तुम प्रमाता को समझाओ। इस पर श्रुति कहती हैं- हम तो उसे बहुत समझाती हैं; परन्तु अब तो वह भी विवश है। जैसे दौड़ने वाला पुरुष यद्यपि पाद संचालन में स्वतन्त्र होता है तथापि वेग बढ़ जाने पर वह भी उस वेग के अधीन हो जाता है; फिर उसकी गति उसके अधीन नहीं रहती। इसी प्रकार यद्यपि प्रमाता जीव स्वतन्त्र है, तो भी बुद्धि से विषय चिन्तन करते रहने के कारण अब उसे विवश होकर उसी प्रकार की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होना पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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