भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसलिये यदि व्रजांगनाएँ अपने प्राकृत पतियों को छोड़कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के पास गयीं तो उनका पातिव्रत भंग नहीं हुआ, क्योंकि-
जिस प्रकार तरंग समुद्र से भिन्न नहीं होती, इसलिये यदि एक तरंग के साथ दूसरी तरंग का सम्बन्ध है तो वस्तुतः वह सम्बन्ध समुद्र के ही साथ है; क्योंकि वह समस्त तरगों का अधिष्ठान है, इसी प्रकार समस्त जीवों के अधिष्ठान साक्षात परब्रह्म भगवान कृष्णचन्द्र ही हैं। अतः श्रुतियों को यह विचार हुआ कि यदि हम परब्रह्म भगवान कृष्णचन्द्र ही हैं। अतः श्रुतियों को यह विचार हुआ कि यदि हम परब्रह्म का ही प्रतिपादन करेंगी तो भी हमारा पातिव्रत भंग नहीं होगा। इस पर भगवान कहते हैं- ‘सच है, मेरे साथ सम्बन्ध करने से तुम्हारा पातिव्रत तो भंग नहीं होगा तथापि ‘क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च’- ये बालक और बछड़े तो रो रहे हैं। इन पर दया करनी चाहिये। ये अज्ञानी हैं, अपने अधिष्ठानभूत मुझ परब्रह्म को नहीं जानते, इसलिये बाल है; तथा इनकी प्रवृत्ति अनात्म पदार्थों में है, इस पाशविक प्रवृत्ति के ही कारण ये वत्स हैं। तुम्हें चाहिये कि इन पर दया करके इन्हें इनके इष्ट पदार्थ सोमादि का प्रदान करो। यदि विचार किया जाय तो उपास्य-उपासना का पर्यवसान तो प्रेमातिशय में होता है। उसके लिये उपासना साधन है। ‘भक्ति’ शब्द के भी दो अर्थ हैं- ‘भज्यते सेव्यते भगवदाकारमन्तःकरणं क्रियतेऽनया सा भक्तिः’ अर्थात् जिसके द्वारा भगवदाकार वृत्ति की जाय उसे भक्ति कहते हैं और दूसरा ‘भजनं भक्तिः’ भगवदाकार वृत्ति ही भक्ति है। इस प्रकार भक्ति साध्य भी है और साधन भी। इसी प्रकार ‘उपसना’ शब्द का भी तात्पर्य यह है- ‘लक्ष्यमुपेत्य यद्दीर्घकालं नैरन्तर्येणादरपूर्वकमासनं तदुपासनम्’ अर्थात् अपने लक्ष्य तक पहुँचकर जो दीर्घकाल तक अव्यवहित रूप से उसकी सन्निधि में रहता है उसका नाम उपासना है। इस तरह यदि हम अपने ध्येय का दीर्घकाल तक सेवन करेंगे तो उसके प्रति हमारे हृदय में राग उत्पन्न होगा। “ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूजपायते।” भगवान की इस उक्ति के अनुसार यदि हम विषय-चिन्तन करते-करते विषयासक्त हो जाते हैं तो दीर्घकाल तक भगवच्चिन्तन करने पर उनमें भी हमारा राग हो ही जाना चाहिये। प्रेम आरम्भ में ही नहीं होता; वह तो दीर्घकाल तक सत्कारपूर्वक अपने प्रियतम का निरन्तर चिन्तन करते रहने पर ही होता है। जिस समय भगवान में हमारा प्रेम होगा उस समय हमें उनकी प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा हो जायगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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