भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी प्रकार पार्वण श्राद्धादि नैमित्तिक कर्म भी अवश्य कर्तव्य हैं। उनका परित्याग करने में दोष माना गया है। आज थोड़े से ब्राह्मण ही ऐसे दिखाई देते हैं जो इन सब धर्मों का यथायोग्य पालन करते हैं। परन्तु उनके प्रति अन्य लोगों की विशेष आस्था नहीं देखी जाती; अतः उनका उत्साह भी कितने दिन रह सकेगा? प्रवृत्ति के लिये आस्था की भी अत्यन्त आवश्यकता है। इसीलिये प्रत्येक ग्रन्थ के पहले उसका माहात्म्य दिया जाता है और उस ग्रन्थ के पाठ के समय उसका पाठ भी अनिवार्य होता है। वह अर्थवाद अभिरुचि की वृद्धि के लिये है। किन्तु उस कर्म के कर्ता को उसमें अर्थवाद दृष्टि नहीं करनी चाहिये। इसी से नाम में अर्थवाद बुद्धि करना भी एक नामापराध माना गया है। नामोच्चारण न करने का दोष निवृत्त हो सकता है; परन्तु नामापराध की निवृत्ति नहीं हो सकती। अतः यदि वैदिक कर्मों की प्रवृत्ति करनी है तो उसका माहात्म्य भी सत्पुरुषों में प्रख्यात होना चाहिये। कर्मयोग की आज भी बहुत महिमा है। परन्तु इस समय इसके अनेक अर्थ हो रहे हैं। ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ इस भगवदुक्ति का आश्रय लेकर महात्मा तिलक ने तो कर्म करने की कुशलता को ही कर्मयोग कहा है। किन्तु भगवान का तो यही कथन है कि ‘कर्म ब्रह्मप्रतिष्ठितम्’ अर्थात कर्म ब्रह्म में स्थित है। यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ करते हुए वे कहते हैं कि ‘ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्’ अर्थात ब्रह्म अक्षर परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। अतः वेद ही ब्रह्म है और वेदोक्त कर्म ही कर्मयोग है। आज भक्त शिरोमणि श्रीगोसाईं जी महाराज की, ‘नहिं कलि धर्म न कर्म विवेकू। रामनाम अवलम्बन एकू’ इस उक्ति का अवलम्बन करके सारे धर्म-कर्मों को तिलांजलि देकर केवल हरिनाम-संकीर्तन में लगने की ही प्रवृति हो रही है। हम भगवान संकीर्तन को हेय-दृष्टि से नहीं देखते। वह तो परम मंगलमय है। परन्तु गोसाईं जी के तात्पर्य को न समझकर उनकी उक्ति का आश्रय लेकर कर्तव्य कर्म की अवहेलना करना कदापि क्षम्य नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज