भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वैदिक मतावलम्बी यदि इन गुणों से शून्य हो तो भी उसी का अनुसरण करना चाहिये। यदि अहिंसा और दया आदि भी हमारे शास्त्रों की विधि से विपरीत हों तो वे पाप हैं और शास्त्रानुमोदित हिंसा भी धर्म है। अर्जुन को दया और करुणा ही तो हो रही थी; परन्तु भगवान कहते हैं-
इस प्रकार भगवान ने उस दया और करुणा को भी ‘अनार्यजुष्ट’, ‘अस्वर्ग्य’ और ‘अकीर्तिकर’, ‘कश्मल’ (पाप) कहकर त्याज्य बतलाया है। अतः पहले लकीर के फकीर बनो। जो कुछ शास्त्र कहता है उसे आँख मूँदकर ग्रहण करो। पहले कुछ योग्यता प्राप्त कर लो तब निर्णय करना। यदि तुम्हें कोई अनुमान करना है तो पहले प्रतिज्ञा, व्याप्ति एवं निगमन आदि पंचावयव वाक्य एवं देवाभास आदि का ज्ञान प्राप्त करो। जब तक तुम्हें सत् और असत् हेतु का विवेक न होगा तब तक ठीक-ठीक अनुमान कैसे कर सकोगे? हमें शान्ति, तितिक्षा और अहिंसा ये कुछ भी अपेक्षित नहीं हैं, हमें केवल वैदिक विधि की अपेक्षा है। जो ऐसा मानते हैं कि ‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ’ यह भगवद्वाक्य है और जो भगवद्वाक्य को अपना सर्वस्व मानने का दावा करते हैं उन्हें तो यही कर्तव्य है, औरों के लिये हमारा कुछ कहना नहीं है। आजकल लोगों की कुछ ऐसी प्रवृत्ति है कि जब वे दूसरों के आचरण पर दृष्टि डालते हैं तो उन्हें निरी भूलें दिखाई देती हैं, किन्तु अपनी भूल उन्हें कभी नहीं दीखती। श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं- ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।’ अतः दूसरों की समीक्षा में न पड़कर हमें पहले अपनी ही ओर देखना चाहिये। शास्त्र की आज्ञा है कि ‘स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम्’ (स्वधर्म का यथाशक्ति पालन करना चाहिये और विधर्म का त्याग) जो लोग यथाशक्ति स्वधर्म का पालन करते हैं वे ही सत्पुरुष हैं। कुछ कर्म तो ऐसे हैं जिनका न करना पाप है; जैसे सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं बलिवैश्वदेव आदि। वे नित्य कर्म हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज