भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
विद्यार्थी को यदि कोई अक्षर दिखलाकर कहा जाय कि यह ‘क’ है और इस पर वह कहने लगे कि ‘क’ क्यों कहते हैं तो उसे इसका हेतु किसी प्रकार नहीं समझाया जा सकता और उसे कोरा ही रहना पड़ेगा। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये तो पहले-पहल उसे आचार्य के कथन में अन्ध-श्रद्धा ही करनी होगी। पीछे जब उसकी बुद्धि विकसित होगी और उसे व्याकरण शास्त्र के सूक्ष्म रहस्य का पता चलेगा तो उसे स्वयं ही सब बात मालूम हो जायगी। जब वैद्य रोगी को औषधि देता है तो वह क्यों नहीं कहता कि मैं इसे क्यों सेवन करूँ। उस समय उसे वैद्य में श्रद्धा करनी ही पड़ती है। श्रुति ने भी ‘श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व’ इस अजात शत्रु की उक्ति द्वारा श्रद्धा का ही विशेष महत्त्व प्रतिपादन किया है। अतः आस्तिकों को यह तर्क करने की आवश्यकता नहीं है कि वेद अपौरुषेय क्यों हैं? जो आर्यावर्त्त में उत्पन्न हुए हैं और आर्य धर्मावलम्बी हैं उन्हें पहले-पहल ऐसा मानना ही चाहिये। पीछे जब समझने की योग्यता होगी तब वे इस तथ्य को समझ भी सकेंगे। पहले योग्यता प्राप्त करो; ‘श्लोकवार्तिक, ‘तन्त्रवार्तिक’ और ‘पंचपादिका विवरण’ आदि ग्रन्थों को देखो; तब समझ सकोगे कि वेद अपौरुषेय क्यों हैं। उस समय तुम यह जान लोगे कि वेद ही सच्छास्त्र क्यों है और उनसे भिन्न किसी अन्य ग्रन्थ को यह सम्मान क्यों प्राप्त नहीं है? इन्हीं के अनुमोदित धर्म की रक्षा करने के लिये भगवान कह रहे हैं-
अब तक हमने जो कुछ कहा है वह हमारी ही कल्पना हो-ऐसी बात नहीं है। भगवान ने भी कर्तव्या-कर्तव्य का विवेचन करने के लिये शास्त्र की ही शरण लेने की आज्ञा दी है। इसी से वे कहते हैं- ‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।’ वह शास्त्र क्या है? इसका भगवान स्पष्टतया खुले शब्दों में उत्तर देते हैं कि ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो।’ अतः वेद ही सच्छास्त्र है। पूर्वमीमांसक ‘शास्त्र’ शब्द का अर्थ वेद ही करते हैं। उत्तर-मीमांसा का सूत्र है- ‘शास्त्रयोनित्वात्’; इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य लोग कहते हैं ‘शास्त्रम् ऋग्वेदादि’। सांख्यादि में तो ‘शास्त्र’ शब्द का उपचार से प्रयोग होता है। जैसे ‘वेदान्त’ शब्द का मुख्य अर्थ उपनिषद है; ब्रह्मसूत्रादि में उसका औपचारक प्रयोग होता है क्योंकि वे उन्हीं का विचार करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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