भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसके सिवा और भी वे कैसे हैं? ‘दीर्घदर्शनः’-‘अनाद्यविद्याबीजनिवृत्त्यनन्तरं दीर्घेण कालेन दर्शनं यस्य स दीर्घदर्शनः’ अर्थात अनादि अविद्यारूप बीजभाव की निवृत्ति के पश्चात् जिनका बहुत देर में दर्शन होता है ऐसे ये भगवान दीर्घदर्शन हैं। इस संसार में नाना प्रकार के कर्मजाल में फँसे हुए जीव को प्रथम तो नर-देह ही दुर्लभ है; उसमें भी पुंस्त्व-प्राप्ति कठिन है तथा पुरुषों में भी विशुद्ध निष्काम भाव से स्वधर्माचरण करना दुर्लभ है, एवं स्वधर्मपरायणों में भी कोई विरले ही विवेक-वैराग्यनिष्ठ होते हैं। यह भगवद्दर्शन अनेकों सोपानातिक्रमणों के पश्चात प्राप्त होने वाला है। इसलिये यह निश्चय ही अत्यन्त दीर्घकाल साध्य है। किन्तु सबके अन्तरात्मा और परप्रेमास्पद होने के कारण वे सबको सुलभ भी है। अतः ‘के ब्रह्मणि कुषु कुत्सितेषु सम एव भातीति ककुभः’- क अर्थात ब्रह्मा में और कु-कुत्सित जीवों में समान रूप से भासमान होने के कारण ककुभ हैं। वे जिस प्रकार हमारे मन और अहंकारादि तथा उनके विकार, श्रद्धा, अश्रद्धा, धी, ह्री आदि के अवभासक हैं उसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर कीटपतंगादि पर्यन्त सभी जीवों के प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय के प्रकाश हैं। इस प्रकार सबको सुलभ होने के कारण वे ‘ककुभ’ हैं। अतः ‘के स्वर्गे कौ पृथिव्यां सर्वत्रैव भातीति ककुभः’ अथवा ‘कं स्वर्गः कुः पृथ्वी भाति विभाति यस्मात स ककुभः’ अर्थात भगवान स्वर्ग और पृथ्वी सभी जगह भासमान हैं अथवा उन्हीं से स्वर्ग और पृथ्वी भी भासमान हैं इसलिये भी वे ‘ककुभ’ हैं। अतः सब कुछ उन्हीं से भासित है- ‘तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’ इस प्रकार वे सभी को सुलभ हैं। इसी से ज्ञानीरूप चर्षणियों की उपासना से सन्तुष्ट होकर वे अपने साथ उनका तादात्म्य स्थापित कर उन्हें भगवदीय आनन्द का अनुभव कराना चाहते हैं। इसीलिये वे उनके विवेकी अन्तःकरण रूप आकाश में उदित हुए। क्या करते हुए उदित हुए?- ‘करैः स्वांशविशेषैर्वैषयिकसुखैश्चर्षणीनामज्ञजनानामपि तत्सुखप्राप्तिनिमित्तान शुचः शोकान् मृजन् दूरीकुर्वन उदगात्’ अर्थात वे अपनी किरणों से अपने अंशभूत वैषयिक सुखों द्वारा चर्षणी यानी अज्ञजनों के भी उस सुख की अप्राप्ति से होने वाले शोकों को निवृत्त करते हुए उदित हुए। वास्तव में, विचारना चाहिये कि वैषयिक सुख भी क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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