भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
एक बात ध्यान देने की और भी है। निरतिशय प्रेम सदा त्वंपदार्थ के लिये ही हुआ करता है; अपने आराध्यदेव में भी जो प्रेम होता है वह आत्मीय होने के ही नाते होता है। इसी से भगवती श्रुति कहती है- ‘न वारे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति।’ अर्थात हे मैत्रेयी! देवता लोग देवताओं के लिये प्रिय नहीं होते; बल्कि अपने ही लिये प्रिय होते हैं। जो उपासक अपने को भगवान से भिन्न समझते हैं वे किसलिये उनमें प्रेम करते हैं? इसीलिये न, कि ऐसा करने से हमारा कल्याण होगा, अथवा ऐसा करने में ही हमें आनन्द आता है; अतः उनका वह भगवत्प्रेम भी आत्मतुष्टि के ही लिये होता है। जिन महानुभावों का ऐसा कथन है कि हमारा सिद्धान्त तो तत्सुखित्व अर्थात भगवान के सुख में सुखी रहना है वे भी इसीलिये तो भगवत्सुख में सुखी हैं, न कि उन्हें उसी में सुख मिलता है। इस प्रकार यदि यह नियम है कि आत्मा के लिये ही सब कुछ प्रिय होता है तो जो उपासक उपने से भिन्न मानकर किसी उपास्य की उपासना करता है, वह भी वास्तव में तो अपने सुख के लिये ही ऐसा करता है। इस प्रकार उसका उपास्य उसके सुख का शेषभूत हो जाता है किन्तु परप्रेमास्पद तो शेषी ही हुआ करता है, शेष नहीं होता। वह तो शेषी का शेष होने के कारण आपेक्षिक प्रेम का ही आस्पद होता है। आत्यन्तिक प्रेम का आस्पद तो शेषी ही होता है। अतः हम जिस किसी भी तत्त्व को अपने से भिन्न मानेंगे वह हमारे परप्रेम का आस्पद नहीं होगा। बल्कि जिसे हम अपने से भिन्न मानेंगे वह हमें अपना शत्रु समझकर अपने परम स्वार्थ से च्युत कर देगा; क्योंकि अपने से भिन्न कोई भी पदार्थ मानने पर द्वैत हो जाता है और थोड़े से भी द्वैत को श्रुति भय का कारण बतलाती है- ‘उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति। यदि कोई सभी को अपने से भिन्न समझता है तो सभी उसका तिरस्कार करने लगते हैं; जैसा कि श्रुति कहती हैं- ‘सर्व तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्व वेद।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज