भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से यह भी बतलाया कि ‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’ अर्थात जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (पारलौकिक परमोन्नति) की सिद्धि होती है वही धर्म है। तथा “ध्रियेते अभ्युदयनिःश्रेयसौ अनेनेति धर्मः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी धर्म ही अभ्युदय और निःश्रेयस का धारण करने वाला है। वस्तुतः वैदिक श्रौत-स्मार्त्त कर्म ही सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने वाला है; इसी से कहा है- ‘धारणाद्धर्ममित्याहुः’ अर्थात धारण करने के काराण ही इसे धर्म कहते हैं। अतः शास्त्रानुमोदित वर्णाश्रम धर्म का यथावत् आचरण करने से ही मनुष्य सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त कर सकता है, और यही भगवत्पूजन का मुख्य प्रकार है- ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’। इसी के द्वारा मनुष्य अन्तःकरणशुद्धिरूपा, भगवद्भक्तिरूपा और भगवज्ज्ञानलक्षणा सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। अतः जिसके हृदय में भगवान रमण करना चाहते हैं उसके हृदय में पहले इस वर्णाश्रम धर्मरूप चन्द्र का ही उदय होता है। इस उडुराज के प्रियः और दीर्घदर्शनः ये दोनों विशेषण हैं। वह उडुराज कैसा है? ‘प्रियः’-सबका प्रिय; क्योंकि सभी प्राणी सुख चाहते हैं और सुख का साधन धर्म है। जो लोग ऐहिक अथवा आमुष्मिक सुख चाहते हैं उन्हें धर्म का आश्रय लेना चाहिये, क्योंकि उसकी प्राप्ति का साधन धर्म ही है। इसी से बुद्धिमान सुख की परवाह न करके धर्मानुष्ठान पर ही जोर देते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि साधन होने पर साध्य की प्राप्ति हो ही जायगी। अतः जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख उपस्थित हो जायगा। श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं-
अर्थात जहाँ धर्म है वहाँ सब प्रकार के सुख और वैभव को आज नहीं तो कल अवश्य जाना पड़ेगा यही नहीं, भगवान को भी धर्म ही प्रिय है, इसी से वे स्वयं कहते हैं- ‘धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।’ अर्थात मैं युग-युग में धर्म की सम्यक् प्रकार से स्थापना करने के लिये जन्म ग्रहण करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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