भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसमें ‘उडुराजः’ का अर्थ एक तो चन्द्रमा ही ठीक है, दूसरे ‘रलयोः डलयोश्चैव’ इत्यादि नियम के अनुसार पहले ‘ड’ और ‘ल’ का सावर्ण्य होने से ‘उलुराज:’ और फिर ‘ल’ और ‘र’ का सावर्ण्य होने के ‘उरुराजः’ माना जाय तो ‘उरुधा राजव इति उरुराजः’ ऐसा विग्रह करके यह अर्थ करेंगे कि यजमान, ऋत्विक्, द्रव्य एवं देवतारूप से अनेक प्रकार सुशोभित होने वाला यज्ञ ही उरुराज है। धर्म के स्वरूप ये ही हैं। पहले हम कह चुके हैं कि अवयवी अवयवों से अभिन्न होता है। अतः धर्म के अंग होने के कारण ये यजमानादि धर्मरूप ही हैं। ‘अष्टादशोक्तमवरंयेषु कर्म’ इस वाक्य के अनुसार कर्म अनेकविध साधनसाध्य ही है। इनमें द्रव्य और देवता तो कर्म के आन्तरिक साधन हैं और ऋत्विक यजमानादि उसके सम्पादक होने के कारण बहिरंग हैं। इस प्रकार यह वैदिक श्रौत स्मार्त्त कर्म ही चन्द्र है। वह जिस हृदय में उदित होता है उसे ही शुद्ध करके भगवान की क्रीड़ाभूमि बना देता है। वह उडुराज कैसा है? ‘ककुभः-के स्वर्गे कौ पृथिव्यां भातीति ककुभः अर्थात यह धर्म स्वर्ग और पृथ्वी में समानरूप से भासता है। यह सारा प्रपंच धर्म का ही कार्य है, यदि धर्म न हो तो यह सब उच्छिन्न हो जाय। धर्म के बिना न यह लोक है और न परलोक ही। ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’ अतः धर्म ही देवताओं का रक्षक है और धर्म ही मनुष्यों का। इसी से भगवान ने कहा है-
अर्थात ‘इस वैदिक श्रौत-स्मार्त्त कर्म से तुम देवताओं को सन्तुष्ट करो और देवता तुम्हारा पालन करें। इस प्रकार परस्पर परितुष्ट करते हुए ही तुम परम श्रेय अर्थात मोक्ष प्राप्त कर सकोगे।’ इस प्रकार साधारण स्वर्गादि ही नहीं, मोक्षप्राप्ति में भी यह वर्णाश्रम धर्म ही मुख्य हेतु है, क्योंकि बिना वर्णाश्रम धर्म का यथावत् आचरण किये चित्त शुद्धि नहीं हो सकती, बिना चित्त शुद्धि के जिज्ञासा नहीं होगी, बिना जिज्ञासा ज्ञान नहीं होगा और ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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