भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
पृथ्वी का इस प्रकार का सौभाग्य तो परम्परा से है। अर्थात यह सौभाग्य पृथ्वी के समस्त देश को प्राप्त नहीं है, बल्कि उसके एक देश को ही है। किन्तु जिस प्रकार भगवान राम के चित्रकूट पर निवास करने से ‘बिनु श्रम विन्ध्य बड़ाई पावा’ सारा विन्ध्याचल ही सौभाग्यशाली समझा गया, उसी प्रकार यहाँ भी यद्यपि केवल व्रजभूमि को ही भगवान के चरणस्पर्श का सौभाग्य प्राप्त था, क्योंकि अन्यत्र रथादि या पादत्राणादि का व्यवधान अवश्य रहता था, तथापि उसी के कारण सारी पृथ्वी की सौभाग्य श्री की सराहना की गयी। व्रज को तो यह सौभाग्य प्राप्त था ही। इसी से कहा है- “जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।” अर्थात आपके प्रादुर्भूत होने से व्रज बहुत ही धन्य-धन्य हो रहा है; क्योंकि यहाँ निरन्तर ही लक्ष्मी जी का निवास रहने लगा है। वैकुण्ठ की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी वैकुण्ठलोक की सेव्या है, किन्तु यहाँ तो वह श्रयते-सेवते अर्थात सेवा करती है-सेविका है। यही नहीं, ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः’ कहकर तो स्पष्ट ही वृन्दारण्य की शोभा में भगवच्चरणों का ही कारणत्व निर्देश किया गया। अतः सिद्ध हुआ कि जिसके कारण अर्थात जिनका चरणस्पर्श पाकर ‘कु’-पृथ्वी भी परमानन्दमयी हो रही है वे श्रीभगवान ही ककुभ हैं। अथवा ‘कः ब्रह्मापि कुत्सितो भाति यस्मात् असौ ककुभः’ अर्थात जिनकी अपेक्षा ब्रह्मा भी कुत्सित ही प्रतीत होता है वे भगवान ही ककुभ हैं। ऐसी स्थिति में उनकी सर्वज्ञता और अलुप्तदृक्तता में तो सन्देह ही क्या है? ऐसे अचिन्त्यानन्दैश्वर्यशाली श्रीभगवान व्रजांगनाओं के रमण के लिये वृन्दारण्य में कैसे आये? इस पर कहते हैं- ‘के ब्रह्मणि कौ कुत्सिते अस्मदादावपि समान एव भातीति ककुभः’ अर्थात वे भगवान ब्रह्मा और हम जैसे कुत्सितों में भी समान रूप से ही विराजमान हैं इसलिये ककुभ कहे जाते हैं, क्योंकि भगवान की दृष्टि में उत्कृष्ट-उपकृष्ट भेद नहीं है। भला जबकि भगवान के स्वरूप का अपरोक्ष साक्षात्कार करने वाले मुनियों की भी ऐसी स्थिति होती है कि ‘साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते’ तो फिर स्वयं भगवान में विषम दृष्टि क्यों होने लगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज