भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस पर यदि कोई कहे कि इस प्रकार अलुप्तदृक् अथवा सर्वज्ञ सर्ववित् रूप से भी सभी के अभिप्राय को जानने वाले श्रीहरि सभी की अभिलाषापूर्ति के लिये प्रादुर्भूत क्यों नहीं हुए? तो इसका कारण यह है कि भगवान् का यह दर्शन दीर्घ-बहुमूल्य है। उनका जो केवल चैतन्यात्मक सामान्य दर्शन है वह तो सभी भावों का भासक और अधिष्ठान होने के कारण किसी का साधक या बाधक नहीं है। किन्तु यहाँ का यह दर्शन अमूल्य है। यह कृपा शक्ति से उपहित है। अतः यहाँ केवल दृष्टि ही नहीं, कृपा का आधिक्य है। अतः यह बहुमूल्य है। इसी से कहा है-
अर्थात जो राम को नहीं देखता और जिसे राम नहीं देखते वह समस्त लोकों में निन्दनीय है तथा उसका आत्मा भी उसका तिरस्कार करता है। राम प्राकृत राजकुमार नहीं है बल्कि वे सबके अन्तरात्मा हैं। अतः आत्मस्वरूप श्रीराम का दर्शन न करने वाले आत्मघाती हैं ही। यदि राम आत्मस्वरूप न होते तो उनका दर्शन न करने में इतनी विगर्हा नहीं थी, क्योंकि इतना निन्दनीय तो आत्मा का ही अदर्शन है, जैसा कि श्रुति कहती है-
अर्थात जो कोई (ऐसे) आत्माघाती[1] लोग हैं वे उन असुर्य नामक (अनात्मज्ञों के आत्मभूत देहात्मक) लोकों को जाते हैं जो अदर्शनात्मक अन्धकार से आवृत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो आत्मतत्त्व नित्य शुद्धबुद्ध मुक्तस्वभाव है उसको कर्तृत्वभोक्तृत्वादि अनर्थों से संयुक्त मानना उसका अपमान करना है। और ‘सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते’ इस भगवदुक्ति के अनुसार यह अपमान उस आत्मदेव की मृत्यु ही है, अतः अनात्मज्ञ आत्मघाती ही है।
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