भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं- “ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी।।” जीव में जो सुखित्व-दुःखित्वादि प्रतीत होते हैं वे यदि स्वाभाविक होते तो उसमें भगवत्सम्प्रयोग की योग्यता ही नहीं हो सकती थी। अतः उसके ये धर्म आरोपित हैं। आरोप की निवृत्ति होते ही जीव का भी भगवान से तादात्म्य हो जाता है। इसी प्रकार श्रीवृषभानुसुता तो भगवान से नित्य संश्लिष्टा हैं किन्तु इतर व्रजबालाओं का उनसे कल्पित भेद है। उस भेद की निवृत्ति होते ही उसका भी भगवान से अभेद हो जायेगा। मायामोहित जीव प्रायः भगवान की ओर प्रवृत्त नहीं होता; इसी से वह बाह्य प्रपंच में आसक्त रहता है। जिस समय किसी महान् पूर्वपुण्य के प्रभाव से उसकी प्रवृत्ति भगवान की ओर होती है उस समय वह बाह्य प्रपंच से विरत हो जाता है और धीरे-धीरे उसे भगवतत्त्व ही परप्रेमास्पद प्रतीत होने लगता है। फिर उसे भगवान का एक क्षण का वियोग भी असह्य हो जाता है। इस प्रकार के विरहानल से सन्तप्त होकर उसका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो जाता है और जिन दोषों के कारण वह अपने प्रियतम की उपेक्षा का भाजन बना हुआ था वे सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। इस विरहावस्था में उसका मुख पीला पड़ जाता है। भक्तिशिरोमणि श्रीभरत जी की इसी अवस्था का वर्णन करते हुए श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं-
इस प्रकार प्रियतम के विप्रयोग में प्रियतम के प्रेमास्पदत्व की अनुभूति हो जाती है। जब तक प्रेमास्पद प्रेमास्पदरूप से अनुभूत नहीं होता तभी तक प्रमाद रहता है। उसमें प्रेमास्पदत्व की अनुभूति होने पर तो उसके बिना एक पल के लिये भी चैन नहीं पड़ता। फिर तो उसकी वियोगाग्नि में झुलस कर शरीर दुर्बल हो जाता है तथा मुख पीला पड़ जाता है। इसी प्रकार गोपांगनाओं के मुख भी भगवद्विप्रयोग में पीले पड़ गये थे। अतः आज जो चन्द्रमा उदित हुए हैं वे एक विलक्षण चन्द्र हैं। आज इनके उदय से उद्दीपनविधया जो भगवान के संगम की सम्भावना से एक उत्साह विशेष होगा उससे उनकी वह पीतिमा अरुणिमा में परिणत हो जायगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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