भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देखो, चन्द्रमा अत्यन्त दूर देश में है तो भी वह समुद्र की अभिवृद्धि का हेतु होता है। जान पड़ता है कि मानो समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों द्वारा चन्द्रमा से मिलना चाहता है। इससे यह सूचित होता है कि प्रिय वस्तु चाहे कितनी ही दूर रहे, किन्तु प्रेमी को उसके प्रति अनुराग की वृद्धि होती है। इसी से जब-जब पूर्णचन्द्र का उदय होता है तभी-तभी समुद्र अत्यन्त उत्सुकता से उससे मिलने के लिये उत्ताल तरंगों से उछलने लगता है। यह सब देखकर प्रेमियों की ऐसी भावना हो जाती है कि जिस प्रकार यह समुद्र अपने प्रियतम तक पहुँचने के प्रयत्न में बारम्बार असफल होते रहने पर भी हताश नहीं होता उसी प्रकार हमें भी अपने प्रियतम से निराश या निरपेक्ष नहीं होना चाहिये। इस प्रकार प्रेमियों को प्रेमरीति सिखाने वाला, भगवान कृष्ण में रमणेच्छा उत्पन्न कराने वाला तथा समस्त जीवों को आनन्दित करने वाला होने के कारण चन्द्रमा सब प्रकार से प्रेमास्पद ही है। इसी प्रकार सर्वान्तरात्मा श्रीभगवान भी सभी के परम-प्रेमास्पद हैं, क्योंकि कोई पुरुष कैसा ही नास्तिक या देहाभिमानी क्यों न हो उसे भी अपनी आत्मा में ही निरतिशय प्रेम होता है। यह चन्द्रमा कैसा है? ‘दीर्घदर्शनः-दीर्घकालानन्तरे अनेक-रात्र्यवसाने दर्शनं यस्य स दीर्घदर्शनः’ अर्थात जिसका दर्शन बहुत-सी रात्रियों के पीछे होता है, क्योंकि पूर्णचन्द्र एक मास के अनन्तर ही उदित होता है। यदि इसे भगवान का विशेषण माना जाय तो इस प्रकार अर्थ होगा-‘दीर्घमबाध्यं दर्शनं यस्य स दीर्घदर्शनः’ अर्थात जिनका दर्शन दीर्घ यानी अबाध्य है क्योंकि ‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्’ इस सूत्र के अनुसार सर्वसाक्षी भगवान की दर्शनशक्ति का लोप कभी नहीं होता। भगवान कृष्ण प्रत्यगात्म होने के कारण ही “प्रियः”-परप्रेमास्पद हैं तथा सर्वान्तरतम प्रत्यगात्मा होने के कारण ही सर्वद्रष्टा हैं। जो सर्वद्रष्टा है वह किसी का दृश्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह जिसका दृश्य होगा उसका दृष्टा नहीं हो सकता और ऐसा होने पर उसका सर्वद्रष्टृत्व बाधित हो जायगा। अतः सर्वदृष्टा श्रीभगवान की दर्शनशक्ति का किसी समय लोप नहीं होता। दर्शन दो प्रकार का है-बौद्ध दर्शन और पौरुषेय दर्शन। भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा अन्तःकरण का उन इन्द्रियों के विषयों से संश्लिष्ट होकर तदाकार हो जाना बौद्ध दर्शन है। यह बुद्धि का परिणाम है। यहाँ बुद्धि ही इन्द्रियों द्वारा विषयों को व्याप्त कर उनके आकार में परिणत हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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