भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार वे उदित हुए। यहाँ ‘करैः’ में जो बहुवचन है वह स्वरूपों की बहुलता के अभिप्राय से भी हो सकता है, क्योंकि यहाँ रासलीला में भगवान को अनेक रूप से आविर्भूत होना है। अतः भगवान के अनेक रूपों की अपेक्षा से बहुवचन का प्रयोग उचित ही है तथा व्रजांगनाओं को जो भगवान के साथ विहारावसर प्राप्त न होने का शोक था उसे भी अपने शन्तम कर यानी सुखप्रद लीलामय विहार विशेषों से ही निवृत्त करते हुए भगवान प्रकट हुए। यहाँ ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ इस सूत्र के अनुसार ‘मृजन्’ में भविष्यार्थ में वर्तमान का प्रयोग हुआ है। अर्थात भगवान अपने साथ विहार करने का सुअवसर न मिलने के कारण जो गोपांगनाओं को शोक था, उसकी निवृत्ति करेंगे इसीलिये उदित हुए हैं। यहाँ-
इस वचन के अनुसार ‘उडुराजः’ की जगह ‘उरुराजः’ भी समझा जाता है। अर्थात जिस समय भगवान वृन्दारण्य में पधारे उस समय श्रीयशोदा और नन्दबाबा को विकलता होने की सम्भावना हुई, क्योंकि जिस प्रकार फणि मणि को नहीं छोड़ सकता उसी प्रकार वे भगवान से विलग नहीं रह सकते थे। अतः भगवान अनेक रूप से प्रकट हुए। अर्थात वृन्दारण्य में प्रकट होने पर भी वे एक रूप से श्रीयशोदा जी के शयनागार में ही रहे। इसी से उन्हें ‘उरुधा-बहुधा राजते यः स उरुराजः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार उरुराज-अनेक रूप से सुशोभित होने वाले कहा है। यहाँ ‘प्रियः’ यह उडुराज का विशेषण है। जिस प्रकार रसिक और भक्त पुरुष दोनों ही को चन्द्रमा प्रिय है उसी प्रकार भगवान भी सबके परम-प्रेमास्पद हैं। चन्द्रमा में रसिकों का प्रेम तो श्रृंगाररस का उद्दीपन विभाव होने के कारण हैः किन्तु साथ ही वह भक्तों को भी अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि उसके मध्य में जो श्यामता है वह उन्हें हृदयाकाश में स्थित ध्यानाभिव्यक्त भगवत्स्वरूप का स्मरण दिलाती है तथा उसके दर्शनमात्र से भी अपने प्रियतम के प्रति प्रेमियों के अनुराग की वृद्धि होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात अलंकाररहस्यज्ञ महानुभाव र और ल, ड और ल, स और ष तथा ब और व इनकी सवर्णता बतलाते हैं।
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