भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जैसा कि कहा है-
अर्थात प्रथम कोटि में साधक यथाविधि वैदिक और स्मार्त्त्त कर्मों का अनुष्ठान करके उपासना द्वारा चित्त के दोषों को निवृत्त करता है; फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा भगवान का साक्षात्कार करने पर वह गुणातीत, जीवन्मुक्त या स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। इस क्रम से कर्म और उपासना में पूर्वमीमांसा, श्रवण में उत्तर मीमांसा, मनन में न्याय और वैशेषिक तथा निदिध्यासन में सांख्य और योग दर्शन का कार्य समाप्त हो जाता है। इस प्रकार कृतकृत्य हो जाने के कारण फिर अपना कोई प्रयोजन न रहने के कारण शास्त्र यद्यपि उस महापुरुष से निवृत्त हो जाता है, तथापि अपने पूर्वाभ्यास के कारण उससे कर्म और उपासना स्वभावतः होते रहते हैं। श्री मधुसूदन स्वामी कहते हैं- “अद्वेष्टृत्वादिवत्तेषां स्वभावो भजनं हरेः।” अर्थात जिस प्रकार उनमें स्वभाव से ही अद्वेष्टृत्वादि गुण रहते हैं उसी प्रकार भगवान का भजन करना भी उनका स्वभाव ही है। यहाँ एक शंका यह भी होती है कि भक्ति तो भेद में होती है और तत्त्वज्ञों की अभेद दृष्टि रहा करती है, फिर वे भक्तिभाव में कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं? इस पर कहते हैं- ‘विभेदभावमाहृत्य’ अर्थात वे भेदभाव का अध्याहार करके भगवान का भजन करते हैं। इस प्रकार का काल्पनिक भेद सब प्रकार मंगलमय ही है। इसी से कहा है-
अर्थात द्वैत तभी तक मोहजनक होता है जब तक ज्ञान नहीं होता; जिस समय विचार द्वारा बोध की प्राप्ति हो जाती है उस समय तो भक्ति के लिये कल्पना किया हुआ द्वैत, अद्वैत की भी अपेक्षा सुन्दर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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