भक्ति-पंथ कौं जो अनुसरै। सुत-कलत्र सौं हित परिहरै।
असन-बसन की चित न करै। बिस्वंभर सब जग कौं भरै।
पसु जाके द्वारे पर होइ। ताकौं पोषत अह-निसि सोइ।
जो प्रभु कै सरनागत आवै। ताकौं प्रभु क्यौं करि बिसरावै?
मातु-उदर मैं रस पहुँचावत। बहुरि रुधिर तैं छीर बनावत।
असन-काज प्रभु बन-फल करे। तृषा-हेत जल-झरना भरे।
पात्र स्थान हाथ हरि दीन्हे। बसन-काज बल्कल प्रभु कीन्हे।
सज्जा पृथ्वी करी बिस्तार। गृह गिरि-कंदर करे अपार।
तातैं सब चिंता करि त्याग। सूर करौ हरि-पद अनुराग।।20।।
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