भक्तनि हित तुम कहा न कियौ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग



            
भक्तनि हित तुम कहा न कियौ?
गर्भ परिच्छित-रच्‍छा कीन्‍ही, अंबरीष-व्रत राखि लियौं।
जन प्रहलाद-प्रतिज्ञा पुरई, सखा बिप्र-दारिद्र हयौ।
अंवर हरत द्रौपदी राखी, ब्रह्म-इंद्र को मान नयौ।
पांडव कौ दूतत्‍व कियौ पुनि, उगसेन कौं राज दयौ।
राखी पैज भक्त भीषम की, पारथ कौ सारथी भयौ।
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के, नारद साप निबृत्त कियौ।
करि बल-बिगत उबारि दुष्‍ट तैं, ग्राह ग्रसत बैकुंठ दियौ।
गौतम की पतिनी तुम तारी, देव दवानल कौं अँचयौ।
सूरदास-प्रभु भक्त-बछल हरि बलि-द्वारैं दरबान भयौ।।26।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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