ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 50-51
इस प्रकार यज्ञ करके महाबाहु राजा सुयज्ञ अपनी राजसभा में रमणीय रत्न-सिंहासन पर बैठे हुए थे। वह सिंहासन रत्नेन्द्रसार से निर्मित अनेक छात्रों से सुशोभित था। उसे अच्छी तरह सजाया गया था। उस पर चन्दन आदि सुगन्धित वस्तुओं का लेप हुआ था। चन्दनपल्लवों से उसकी रमणीयता और बढ़ गयी थी। वहाँ वसु, वासव, चन्द्रमा, इन्द्र, आदित्यगण, मुनिवर नारद तथा बड़े-बड़े देवता विराजमान थे। इसी समय वहाँ एक ब्राह्मण आया, जो रूखा और मलिन वस्त्र पहने था। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूखे हुए थे। उसने मुसकराते हुए हाथ जोड़कर सिंहासन पर बैठे हुए पुष्पमाला और चन्दन से चर्चित राजा को आशीर्वाद दिया। राजा ने भी ब्राह्मण को प्रणाम तो किया, किंतु वे अपने स्थान से उठे नहीं। उस सभा के सभासद भी ब्राह्मण की ओर देखकर खड़े नहीं हुए। वे सभी थोड़ा-थोड़ा हँसते रहे। तब वह श्रेष्ठ ब्राह्मण मुनियों और देवताओं को नमस्कार करके निरंकुश-भाव से वहाँ खड़ा हो गया और क्रोधपूर्वक राजा को शाप देता हुआ बोला- ‘ओ पामर! तू इस राज्य से दूर चला जा, श्रीहीन हो जा तथा शीघ्र ही गलित कोढ़ से युक्त, बुद्धिहीन और उपद्रवों से ग्रस्त हो जा।’ ऐसा कहकर क्रोध से काँपता हुआ ब्राह्मण सभासदों को शाप देने के लिए उद्यत हो गया। जो लोग वहाँ हँसे थे, वे सब उठकर खड़े हो गये। उन सबने अपने दोष का परिहार कर लिया। अतः उनकी ओर से ब्राह्मण का क्रोध जाता रहा। राजा उस ब्राह्मण को प्रणाम करके भय से कातर हो रोने लगे। वे व्यथित-हृदय से सभा के बीच से बाहर निकले। तब गूढ़रूप वाले वे ब्राह्मण देवता भी ब्रह्मतेज से प्रकाशित होते हुए चल दिये। उनके पीछे-पीछे भय से कातर हुए समस्त मुनि भी चले और बारंबार उच्च स्वर से पुकारने लगे– ‘हे विप्र! ठहरो, ठहरो।’ उन मुनियों के नाम इस प्रकार हैं– पुलह, पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, अंगिरा, मरीचि, कश्यप, वसिष्ठ, क्रतु, शुक्र, बृहस्पति, दुर्वासा, लोमश, गौतम, कणाद, कण्व, कात्यायन, कठ, पाणिनि, जाजलि, ऋष्यश्रृंग, विभाण्डक, आपिशलि, तैत्तिलि, महातपस्वी मार्कण्डेय, वोढु, पैल, सनक, सनन्दन, सनातन, भगवान सनत्कुमार, नर-नारायण ऋषि, पराशर, जरत्कारु, संवर्त, करथ, और्व, च्यवन, भरद्वाज, वाल्मीकि, अगस्त्य, अत्रि, उतथ्य, संवर्त, आस्तीक, आसुरि, शिलालि, लाङ्गलि, शाकल्य, शाकटायन, गर्ग, वात्स्य, पञ्चशिख, जमदग्नि, देवल, जैगीषव्य, वामदेव, बालखिल्य आदि, शक्ति, दक्ष, कर्दम, प्रस्कन्न, कपिल, विश्वामित्र, कौत्स, ऋचीक और अघमर्षण– ये तथा और भी मुनि, पितर, अग्नि, हरिप्रिय, दिक्पाल तथा समस्त देवता भी ब्राह्मण के पीछे-पीछे चले। पार्वति! उन नीतिविशारद मुनियों ने ब्राह्मण को समझाया, एक स्थान पर ठहाराया और क्रमशः उनसे नीति की बातें कहीं। पार्वती ने पूछा– प्रभो! ब्राह्मणों और ब्रह्माजी के पुत्रों ने, जो नीति के विद्वान थे, उस समय उन ब्राह्मणदेवता से नीति की कौन-सी बात कही, यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहादेव बोले– सुमुखि! उस मुनि-समुदाय ने स्तुति और विनय से ब्राह्मण को संतुष्ट करके क्रमशः इस प्रकार कहना आरम्भ किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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