ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41
नारद जी ने कहा– प्रभो! मुनीश्वर! अब मुझे भगवती स्वाहा की पूजा का वह विधान, ध्यान एवं स्तोत्र बताने की कृपा कीजिये, जिससे अग्निदेव ने उनकी पूजा करके स्तुति की थी। भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मन! मुनिवर! भगवती स्वाहा के ध्यान, स्तोत्र और पूजा का जो विधान सामवेद में कहा गया है, वही मैं तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो। पुरुष को चाहिये कि फल प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण यज्ञों के आरम्भ में शालग्राम की प्रतिमा में अथवा कलश पर यत्नपूर्वक भगवती स्वाहा का पूजन करके यज्ञ आरम्भ करे। ध्यान इस प्रकार करना चाहिये– ‘देवी स्वाहा मन्त्रों की अंगभूता होने से परम पवित्र हैं। ये मन्त्र सिद्धिस्वरूपिणी हैं। सिद्ध एवं सिद्धिदायिनी हैं तथा मनुष्यों को उनके सम्पूर्ण कर्मों का फल देने वाली हैं। मैं उनका भजन करता हूँ।’ मुने! यों ध्यान करके मूलमन्त्र से पाद्य आदि अर्पण करने के पश्चात् स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य को सम्पूर्ण सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं। मूलमन्त्र यह है– ‘ऊँ ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहा’। इस मन्त्र से भक्तिपूर्वक जो भगवती स्वाहा की पूजा करता है, उसके सारे मनोरथ अवश्य पूर्ण हो जाते हैं। अग्निदेव बोले – स्वाहा, आद्या, प्रकृत्यंशा, मन्त्रतन्त्रांगरूपिणी, मन्त्रफलदात्री, जगद्धात्री, सती, सिद्धिस्वरूपा, सिद्धा, सदा नृणां सिद्धिदा, हुताशदाहिकाशक्ति, हुताशप्राणाधिकरूपिणी, संसारसाररूपा, घोरसंसारतारिणी, देवजीवनरूपा और देवेपोषणकारिणी– ये सोलह नाम भगवती स्वाहा के हैं। जो भक्तिपूर्वक इनका पाठ करता है, उसे इस लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति होती है[1] उसका कोई भी कर्म अंगहीन नहीं होता। उसे सब कर्मों में शुभ फल की प्राप्ति होती है। इन सोलह नामों के प्रभाव से पुत्रहीन को पुत्र तथा भार्याहीन को प्रिय भार्या प्राप्त हो जाती है। भगवान नारायण कहते हैं– मुने! अब भगवती स्वधा का उत्तम उपाख्यान कहता हूँ, सुनो। यह पितरों के लिये तृप्तिप्रद एवं श्राद्धों के फल को बढ़ाने वाला है। जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सात पितरों का सृजन किया; उनमें चार तो मूर्तिमान थे और तीन तेजःस्वरूपा थे। उन सातों सिद्धिस्वरूप मनोहर पितरों को देखकर उनके भोजन के लिये श्राद्ध-तर्पणपूर्वक दिया हुआ पदार्थ निश्चित किया। तर्पणान्त स्नान, श्राद्धपर्यन्त देवता पूजन तथा त्रिकालसंध्यान्त आह्निक कर्म– यह ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वह्निरुवाच– स्वाहाद्या प्रकृतेरंशा मन्त्रतन्त्राङ्गरूपिणी। मन्त्राणां फलदात्री च धात्री च जगतां सती ।।
सिद्धिस्वरूपा सिद्धा च सिद्धिदा सर्वदा नृणाम्। हुताशदाहिकाशक्तिस्तत्प्राणाधिकरूपिणी ।।
संसारसाररूपा च घोरसंसारतारिणी। देवजीवनरूपा च देवपोषणकारिणी ।।
षोडशैतानि नामानि यः पठेद्भक्तिसंयुतः। सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य इहलोके परत्र च ।।-(प्रकृतिखण्ड 40। 51-54)
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