ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 38-39
सबके बान्धवरूप में तुम्हारा ही पधारना हुआ है। तुम्हारे बिना भाई भी भाई-बन्धुओं के लिये बात करने योग्य भी नहीं रहता है। जो तुमसे हीन है, वह बन्धुजनों से हीन है तथा जो तुमसे युक्त है, वह बन्धुजनों से भी युक्त है। तुम्हारी ही कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार बचपन में दुधमुँहे बच्चों के लिये माता है, वैसे ही तुम अखिल जगत की जननी होकर सबकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण किया करती हो। स्तनपायी बालक माता के न रहने पर भाग्यवश जी भी सकता है; परंतु तुम्हारे बिना कोई भी नहीं जी सकता। यह बिलकुल निश्चित है। अम्बिके! सदा प्रसन्न रहना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। अतः मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। सनातनी! मेरा राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया है, तुम्हारी कृपा से वह मुझे पुनः प्राप्त हो जाए। नारद! इस प्रकार कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ देवराज इन्द्र ने मस्तक झुकाकर भगवती महालक्ष्मी को बार-बार प्रणाम किया। उस समय उनकी आँखों में प्रेमानन्द के आँसू भर आये थे। देवताओं के कल्याणार्थ ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव– इन सभी महानुभावों ने भगवती महालक्ष्मी से प्रार्थना की। तब उस देवसभा में शोभा पाने वाली भगवती प्रसन्न हो गयीं। उन्होंने देवताओं को वर दिया और भगवान श्रीकृष्ण को मनोहर पुष्पमाला समर्पण की। सभी देवता अपने-अपने स्थान पर चले गये। स्वयं भगवती महालक्ष्मी क्षीरशायी भगवान श्रीहरि के वक्षःस्थल पर प्रसन्नतापूर्वक पधार गयीं। मुने! ब्रह्मा और शंकर भी देवताओं को शुभ आशीर्वाद देकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए अपने-अपने धाम को चले गये। यह स्तोत्र महान पवित्र है। इसका त्रिकाल पाठ करने वाला बड़भागी पुरुष कुबेर के समान राजाधिराज हो सकता है। पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र सिद्ध होता है। यदि इस सिद्ध स्तोत्र का कोई निरन्तर एक महीने पाठ करे तो वह महान सुखी एवं राजेन्द्र हो जाएगा– इसमें कोई संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इन्द्र उवाच
ऊँ नमो महालक्ष्म्यै ।।
ऊँ नमः कमलवासिन्यै नाराण्यै नमो नमः। कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नमः ।।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः। पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ।।
सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नमः। सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नम। ।।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः। कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ।।
कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने। सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ।।
शस्याधिष्ठातृदेव्यै च शस्यायै च नमो नमः। नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नमः ।।
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मीः क्षीरसागरे। स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ।।
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता। सुरभिः सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ।।
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये। स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ।।
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वधारा वसुंधरा। शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ।।
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना। परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ।।
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम्। जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ।।
सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी। यया विना न सम्भाष्यो बान्धवैर्बान्धवः सदा ।।
त्वया हीनो बन्धुहीनो त्वया युक्तः सबान्धवः। धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ।।
यथा माता स्तनन्धानां शिशूनां शैशवे सदा। तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः ।।
मातृहीनः स्तनान्धश्च स चेज्जीवति दैवतः। त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ।।
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके। वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ।।
वयं यावत् त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुकाः। सर्वसम्पद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ।।
राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि। कीर्तिं देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै ।।
कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये। ज्ञानं देहि च धर्म च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ।।
प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च। जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ।।-(प्रकृतिखण्ड 49। 51-71)
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