ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
योगी, यती, सिद्ध और तपस्वी सबके लिये कर्मों का भोग अनिवार्य है, परंतु नारायण के भक्तों के लिये कर्मभोग नहीं है। जैसे प्रज्वलित अग्नि में डाला गया सूखा ईंधन शीघ्र ही जल जाता है, उसी प्रकार भगवद्भक्तों के स्पर्शमात्र से सारा पाप तत्काल भस्म हो जाता है। श्रीकृष्ण-भक्त से रोग, पाप और भय सभी थर-थर काँपते हैं। यमदूत भी उससे डरकर दूर भागते हैं। विधाता के कारागार रूपी इस संसार में मनुष्य तभी तक बँधा रहता है, जब तक कि गुरु के मुख से उसको श्रीकृष्ण-मन्त्र का उपदेश नहीं प्राप्त होता। श्रीकृष्ण का नाम किये हुए कर्मों के भोगरूपी बेड़ी का उच्छेद करने वाला, मायाजाल को छिन्न-भिन्न कर देने वाला तथा मायापाश का विनाशक है। गोलोक के मार्ग का सोपान, उद्धार का बीज तथा भक्ति का नित्य बढ़ने वाला अविनाशी अंकुर है। पुरन्दर! सम्पूर्ण तप, योग, सिद्धि, वेदाध्ययन, व्रत, दान, तीर्थस्थान, यज्ञ, पूजन और उपवास– इन सबका वही सार है, ऐसा ब्रह्मा जी का कथन है। श्रीकृष्ण के मन्त्र को ग्रहण करने मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। उसके स्पर्श से तीर्थों के समुदाय तथा सारी पृथ्वी तत्काल पवित्र हो जाती है। अनेक जन्मों तक जिसे कोई दीक्षा नहीं प्राप्त हुई है, वह लेशमात्र पुण्य के प्रभाव से किसी अन्य देवता का मन्त्र पाता है। अनेक जन्मों तक अन्य देवताओं की सेवा के फलस्वरूप उसको समस्त कर्मों के साक्षी सूर्यदेव का मन्त्र प्राप्त होता है। तीन जन्मों तक सूर्य की सेवा से शुद्ध हुआ मनुष्य गणेश जी के सर्वविघ्नकारी मन्त्र का उपदेश पाता है। अनेक जन्मों तक उनकी सेवा से मनुष्य की सारी विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं। फिर वह गणेश जी के कृपा-प्रसाद से दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है। उस ज्ञान के प्रकाश में भलीभाँति विचार करके अज्ञानान्धकार का निवारण करने के पश्चात् मनुष्य विष्णुमायास्वरूपिणी प्रकृति देवी दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का भजन करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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