ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
वर्ष के अन्त में पौष की संक्रान्ति के दिन मनु ने अपने प्रांगण में इनकी प्रतिमा का आवाहन करके इनकी पूजा की। तत्पश्चात् तीनों लोकों में वह पूजा प्रचलित हो गयी। राजेन्द्र! मंगल, केदार, नील, नल, सुबल, उत्तानपाद-पुत्र ध्रुव, इन्द्र, बलि, कश्यप, दक्ष, मनु, विवस्वान (सूर्य), प्रियव्रत, चन्द्रमा, कुबेर, वायु, यम, अग्नि और वरुण ने मंगलमयी देवी की उपासना की। इस प्रकार ये भगवती महालक्ष्मी सर्वत्र सब लोगों से सदा सुपूजित हुई हैं। ये सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री देवी हैं। समस्त सम्पत्तियाँ इन्हीं का स्वरूप हैं। नारदजी ने पूछा- भगवन! श्री महालक्ष्मी भगवान नारायण की प्रिया होकर सदा वैकुण्ठ में विराजती हैं। उन सनातनी देवी को वैकुण्ठ की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। फिर वे देवी पृथ्वी पर सिन्धु कन्या के रूप में कैसे प्रकट हुईं? उनका ध्यान, कवच और पूजन सम्बन्धी सम्पूर्ण विधान क्या है? पूर्वकाल में सबसे पहले उन महालक्ष्मी का स्तवन किसने किया था? इन सब बातों का मेरे लिये विशद विवेचन कीजिये। भगवान नारायण ने कहा- नारद! पूर्व समय की बात है। दुर्वासा के शाप से इन्द्र, देव समुदाय तथा मर्त्यलोक-सभी श्री हीन हो गये थे। रूठी हुई लक्ष्मी स्वर्ग आदि का त्याग करके बड़े दुःख के साथ वैकुण्ठ में गयीं और महालक्ष्मी में अपने-आपको विलीन कर दिया। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के शोक की सीमा नहीं रही। वे परम दुःखी होकर भगवान ब्रह्मा की सभा में गये। वहाँ पहुँचकर ब्रह्मा जी को आगे करके वे सब वैकुण्ठ में गये। वहाँ भगवान नारायण विराजमान थे। अत्यन्त दैन्य भाव प्रकट करते हुए देवताओं ने उनकी शरण ग्रहण की। वस्तुतः देवता बहुत दुःखी थे। उनके कण्ठ, ओंठ और तालु सूख गये थे। तब पुराण पुरुष भगवान श्रीहरि की आज्ञा मानकर वे इन्द्र सम्पत्ति स्वरूपा लक्ष्मी अपनी कला से समुद्र की कन्या हुईं। देवताओं और दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया था। उससे महालक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ। देवताओं ने वहाँ उन्हें देखा और उनसे वर प्राप्त किया। देवता आदि को वर देकर उन प्रसन्न वदना देवी ने क्षीरसागर में शयन करने वाले भगवान विष्णु को वरमाला अर्पित की। नारद! उनकी कृपा से देवताओं को असुरों के हाथ में गया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हो गया। देवता उनकी भली-भाँति पूजा और स्तुति करके सर्वत्र निरापद हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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