ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 21
पतिव्रते! दस हजार गोदान से मानव जो फल प्राप्त करता है, वही फल तुलसी-पत्र के दान से पा लेता है। जो मृत्यु के समय मुख में तुलसी-पत्र का जल पा जाता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के लोक में चला जाता है। जो मनुष्य नित्य प्रति भक्ति पूर्वक तुलसी का जल ग्रहण करता है, वही जीवन्मुक्त है और उसे गंगा-स्नान का फल मिलता है। जो मानव प्रतिदिन तुलसी का पत्ता चढ़ाकर मेरी पूजा करता है, वह लाख अश्वमेध-यज्ञों का फल पा लेता है। जो मानव तुलसी को अपने हाथ में लेकर और शरीर पर रखकर तीर्थों में प्राण त्यागता है, वह विष्णुलोक में चला जाता है। तुलसी-काष्ठ की माला को गले में धारण करने वाला पुरुष पद-पद पर अश्वमेध-यज्ञ के फल का भागी होता है, इसमें संदेह नहीं। जो मनुष्य तुलसी को अपने हाथ में रखकर प्रतिज्ञा करता है, और फिर उस प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, उसे सूर्य और चन्द्रमा की अवधिपर्यन्त ‘कालसूत्र’ नामक नरक में यातना भोगनी पड़ती है। जो मनुष्य तुलसी को हाथ में लेकर या उसके निकट झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह ‘कुम्भीपाक’ नामक नरक में जाता है और वहाँ दीर्घकाल तक वास करता है। मृत्यु के समय जिसके मुख में तुलसी के जल का एक कण भी चला जाता है वह अवश्य ही विष्णुलोक को जाता है। पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी और सूर्य-संक्रान्ति के दिन, मध्याह्नकाल, रात्रि, दोनों संध्याओं और अशौच के समय, तेल लगाकर, बिना नहाये-धोये अथवा रात के कपड़े पहने हुए जो मनुष्य तुलसी के पत्रों को तोड़ते हैं, वे मानो भगवान श्रीहरि का मस्तक छेदन करते हैं। साध्वि! श्राद्ध, व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा देवार्चन के लिये तुलसी पत्र बासी होने पर भी तीन रात तक पवित्र ही रहता है। पृथ्वी पर अथवा जल में गिरा हुआ तथा श्रीविष्णु को अर्पित तुलसी-पत्र धो देने पर दूसरे कार्य के लिये शुद्ध माना जाता है।[1] तुम निरामय गोलोक-धाम में तुलसी की अधिष्ठात्री देवी बनकर मेरे स्वरूप भूत श्रीकृष्ण के साथ निरन्तर क्रीड़ा करोगी। तुम्हारी देह से उत्पन्न नदी की जो अधिष्ठात्री देवी है, वह भारतवर्ष में परम पुण्यदा नदी बनकर मेरे अंशभूत क्षार-समुद्र की पत्नी होगी। स्वयं तुम महासाध्वी तुलसी रूप से वैकुण्ठ में मेरे संनिकट निवास करोगी। वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी। गोलोक के रास में भी तुम्हारी उपस्थिति होगी, इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तव केशसमूहाश्च पुण्यवृक्षा भवन्त्विति। तुलसीकेशसम्भूतास्तुलसीति च विश्रुताः।।
त्रिषु लोकेषु पुष्पाणां पत्राणां देवपूजने। प्रधानरूपा तुलसी भविष्यति वरानने।।
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले वैकुण्ठे मम संनिधौ। भवन्तु तुलसीवृक्षा वराः पुष्पेषु सुन्दरि।।
गोलोके विरजातीरे रासे वृन्दावने भुवि। भाण्डीरे चम्पकवने रम्ये चन्दनकानने।।
माधवीकेतकीकुन्दमल्लिकामालतीवने। भवन्तु तरवस्तत्र पुण्यस्थानेषु पुण्यदाः।।
तुलसीतरुमूले च पुण्यदेशे सुपुण्यदे। अधिष्ठानं तु तीर्थानां सर्वेषां च भविष्यति।।
तत्रैव सर्वदेवानां समधिष्ठानमेव च। तुलसीपत्रपतनप्राप्तये च वरानने।।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः। तुलसीपत्रतोयेन योऽभिषेकं समाचरेत्।।
सुधाघटसहस्रेण सा तुष्टिर्न भवेद्धरेः। या च तुष्टिर्भवेन्नृणां तुलसीपत्रदानतः।।
गवामयुतदानेन यत्फलं लभते नरः। तुलसीपत्रदानेन तत्फलं लभते सति।।
तुलसीपत्रतोयं च मृत्युकाले च यो लभेत्। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।
नित्यं यस्तुलसीतोयं भुङ्क्ते भक्त्या च मानवः। स एव जीवन्मुक्तश्च गङ्गास्नानफलं लभेत्।।
नित्यं यस्तुलसीं दत्त्वा पूजयेन्मां च मानवः। लक्षाश्वमेधजं पुण्यं लभते नात्र संशयः।।
तुलसीं स्वकरे कृत्वा देहे धृत्वा च मानवः। प्राणांस्त्यजति तीर्थेषु विष्णुलोकं स गच्छति।।
तुलसीकाष्ठनिर्माणमालां गृह्णति यो नरः। पदे पदेऽश्वमेधस्य लभते निश्चितं फलम्।।
तुलसीं स्वकरे धृत्वा स्वीकारं यो न रक्षति। स याति कालसूत्रं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ।।
करोति मिथ्या शपथं तुलस्या यो हि मानवः। स याति कुम्भीपाकं च यावदिन्द्राश्चतुर्दश।।
तुलसीतोयकणिकां मृत्युकाले च यो लभेत्। रत्नयानं समारुह्य वैकुण्ठं स प्रयाति च।।
पूर्णिमायाममायां च द्वादश्यां रविसंक्रमे। तैलाभ्यङ्गे चास्नाते च मध्याह्ने निशि संध्ययोः।।
अशौचेऽशुचिकाले वा रात्रिवासोऽन्विता नराः। तुलसीं ये विचिन्वन्ति ते छिन्दन्ति हरेः शिरः।।
त्रिरात्रं तुलसीपत्रं शुद्धं पर्युषितं सति। श्राद्धे व्रते च दाने च प्रतिष्ठायां सुरार्चने।।
भूगतं तोयपतितं यद्दत्तं विष्णवे सति। शुद्धं च तुलसीपत्रं क्षालनादन्यकर्मणि।।-(प्रकृतिखण्ड 21। 32-53)
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